top of page

घर

  • Jun 14, 2020
  • 9 min read

Updated: Jul 18, 2020

ज्योति ने एक बार फिर सारे कमरों का बड़ी गहराई से मुआयना किया। हर चीज अपनी जगह खिल रही थी। सारा घर किसी फाइव स्टार होटल के सुसज्जित कमरों की भाँति सजा था। हर कमरे में कीमती कालीन, कीमती आकर्षक पर्दे, डिजाइनर गमलों में भाँति-भाँति के पौधे घर की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे।क्या बेडरूम, क्या डाइनिंग हॉल,क्या ड्राँईंग-रूम…सभी जगह एक से एक कीमती चीजें बड़ी सलीकेदार ढ़ंग से सजायी गयीं थीं। बच्चों के कमरे भी ढेर सारे कीमती खिलौने और आकर्षक पेंटिंग्स से सजे थे। किचन का तो कहना ही क्या…आराम की सभी चीजें वहाँ मौजूद थीं। अपने घर को इस कदर सुसज्जित देखकर ज्योति का रोम -रोम खिल उठा — ”सचमुच सजावट के मामले में उसका कोई जवाब नहीं” — ज्योति को अपनेआप पर गर्व हो आया।


बचपन से ही ज्योति को सजाने -संवारने का बड़ा शौक था। सारे घर में एक उसी का कमरा सबसे साफ-सुथरा और सजा हुआ रहता था। मम्मी-डैडी तो क्या, मुहल्ले के अन्य लोग भी अपने बच्चों को ज्योति का ही उदाहरण देकर समझाया करते थे। स्कूल में सबसे साफ सुथरा रहने और डिसीप्लीन्ड व्यवहार के लिए उसे क ई इनाम मिल चुके थे।मुहल्ले वाले कहते — ”ज्योति तो ज्योति है,जहाँ जाती है,हर चीज जगमगा देती है।”


सचमुच, ज्योति को गंदगी और शोर शराबे से शुरु से ही नफरत थी। वह किसी भी बच्चे को अपने कमरे में बिना पांव धोये घुसने की इजाजत नहीं देती थी। जो भी आता,कमरे की सजावट दूर से ही देखता,उसे किसी भी चीज को छूने की इजाजत नहीं होती। शादी के बाद भी उसने अपनी इस मनःस्थिति को बनाये रखा।इस कारण उसे उसकी सास और ननद से बिल्कुल नहीं बनी।उसके ससुराल वाले बहुत ही मजाकिया किस्म के थे।ज्वाइंट फैमिली थी..बड़ा परिवार और ढेर सारे बच्चे.. हर वक्त किसी न किसी के कमरे में महफिल जमी रहती और ठहाके गूँजते रहते थे। ज्योति के अनुशासन का पालन संभव नहीं होता और घर का सजाना-संवारना भी नहीं हो पाता था।शुरू-शुरू में तो उसने बर्दाश्त किया,लेकिन अत्यंत कोशिश करके भी वह खुद को उस माहौल में एडजस्ट नहीं कर सकी।पति ने भी उसे घर के अनुरूप बदलने की भरपूर कोशिश की पर सफल नहीं हो सके। दोनों के बीच तनाव बढ़ता गया और आखिरकार पति को उसके कहे अनुसार अलग मकान लेना पड़ा। रिश्तेदारों ने शत-प्रतिशत ज्योति को ही दोषी ठहराया पर उसने किसी की भी बात का ध्यान नहीं दिया।


धीरे-धीरे समय गुजरता गया,ज्योति के दो बच्चे हुए,फिर अपना मकान हुआ और पति ने पूरी तरह उसके आगे आत्मसमर्पण कर दिया।अब तो ज्योति पूरी तरह से घर की स्वामिनी बन गयी।सारे घर में उसका एकच्छत्र शासन चलता।उसकी मर्जी के खिलाफ घर में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता था। ज्योति का सोचना था कि स्वस्थ माहौल में ही व्यक्ति का तन और मन दोनों सुखी होता है और चूँकि व्यक्ति अधिकांश समय घर में ही व्यतीत करता है,अतः घर को खूब स्वच्छ, सुन्दर और शांत होना चाहिए।यही सोचकर उसने घर के छोटे से छोटे मामले की कमांड अपने हाथ में ले ली थी।उठने-बैठने के तरीके, खाने का ढंग,कपड़े पहनने की च्वॉयस… सभी में उसी का हुक्म चलता था।घर में कूदने-फांदने और ठहाके लगाने की सख्त मनाही थी क्योंकि इससे ध्वनि प्रदूषण फैलने का खतरा था।बच्चे काफी सहमे-सहमे रहते… पता नहीं उनकी किस हरकत पर मम्मी उबल पड़ें। पति ने तो पहले ही हार मान ली थी,अतः वह भी काफी चुप-चुप से रहते।वह भी अपनी पत्नी को नाराज नहीं करना चाहते थे।


सब कुछ ज्योति के हिसाब से ही चल रहा था,बस एक ही बात उसे अक्सर परेशान करती थी..वह यह कि इतना सब होने पर भी मुहल्ले वाले शांति की ही तारीफ करते थे,न कि ज्योति की।शांति हाल में ही उस मुहल्ले में रहने आई थी।बहुत कम समय में ही उसकी सबसे दोस्ती हो गयी थी और लगभग हर घर में उसका आना-जाना था।ज्योति को हमेशा से अपनी तारीफ सुनने की आदत थी।पहले भी लोग उसकी सफाई पसंद वाली आदतों की तारीफ करते थे, पर जबसे उसके सामने वाले मकान में शांति रहने आयी थी,लोग उसी का नाम लेते रहते थे। बड़े तो बड़े छोटे बच्चे भी जब देखो शांति आंटी..शांति आंटी की रट लगाये रहते। दो तीन महीनों में ही शांति सबकी चहेती बन गई थी।इस वजह से ज्योति मन ही मन शांति से जलने लगी थी — -”न शक्ल ,न सूरत..ऐसी कोई पढ़ी लिखी भी तो नहीं है..बस ग्रेजुएट.. आजकल तो नौकरानियाँ भी बी.ए. पास कर लेती हैं..पता नहीं मुहल्ले वालों ने क्या देखा कि दिन-रात उसकी तारीफों के पुल बाँधते रहते हैं — ”वह मन ही मन में सोचती।


शांति पहनावे से बहुत पैसे वाली भी नहीं लगती थी।दो बच्चे थे।दोनों हर वक्त उछलते-कूदते और हँसते दिखते और शाम को स्कूल से लौटने के बाद मुहल्ले के सारेे बच्चों के साथ धमाचौकड़ी करते। उनकी तुलना में तो ज्योति को अपने बच्चे ही ज्यादा अच्छे लगते क्योंकि दोनों ही बहुत शांत थे।स्कूल से आकर अपने लॉन में ही एक -दूसरे से खेल लेते या चुपचाप बरामदे से दूसरे बच्चों को खेलते देखते थे।


ज्योति का क ई बार मन हुआ कि शांति के घर अंदर जाकर देखे कि कैसी सजावट है,क्या-क्या चीजें हैं.. किन्तु ईर्ष्यावश वह कभी पहल नहीं कर सकी।हाँ, शांति अक्सर उसके घर आ जाया करती..कभी खीर लेकर, कभी बेसन के लड्डू लेकर।हालांकि ज्योति को शांति का यूँ बार-बार आना कुछ बहुत अच्छा नहीं लगता था पर वह मना भी तो नहीं कर सकती थी,आखिर कर्टसी भी कोई चीज है। ज्योति अभी सोच में ही डूबी थी कि कॉलबेल बजी।’शायद कुरियर वाला होगा’..सोचकर उसने दरवाजा खोला तो सामने शांति को खड़ी पाया। न चाहते हुए भी उसने औपचारिकता की — ”आओ शांति, बैठो।”शांति शायद जल्दी में थी,इसीलिए उसने अंदर आने से इंकार कर दिया। कहने लगी — ”अभी तो चलूँगी ज्योति दी, गैस पर दूध चढ़ाकर आई हूँ। फोन नहीं लग रहा था,सो दौड़कर आ गई।शाम को हमारे घर सत्यनारायण की कथा है,तुम सबलोग प्रशाद खाने आना…अच्छा मैं चलती हूँ।”फिर लगभग दौड़ती हुई वापस चली गई।ज्योति ने बुरा सा मुँह बनाया और फिर दरवाजा बंद कर लिया। सोचा-”चलो, इसी बहाने शांति का घर देख लूँगी।”


शाम को शांति के घर भीड़ लग गई।बाहर लॉन में मुहल्ले भर के बच्चे उछलकूद मचा रहे थे।ज्योति ने अपने बाहर के गेट में ताला लगवा दिया और नौकरों को ताकीद दी कि ध्यान रखें… ऐसा न हो कि बच्चे मौका पाकर उसकी लॉन में घुस आयें और उसके खूबसूरत लॉन की ऐसी की तैसी कर दें। ज्योति के दोनों बच्चे बाहर जाकर खेलना चाह रहे थे पर ज्योति की तनी हुई भवें उन्हें इजाजत नहीं दे रहीं थीं।


बच्चों को लेकर ज्योति सीधा शांति के घर पहुंची।पति को ऑफिस से सीधा वहीं आना था। शांति ने बड़े प्रेम से उसका स्वागत किया।अंदर एक बड़े से कमरे में पूजा हो रही थी।शांति के पति और उसका लड़का पूजा पर बैठे थे। बेटी पास-पड़ोस की औरतों के साथ प्रशाद बनाने में जुटी थी। ज्योति को तो विश्वास ही नहीं हुआ कि ये वही बच्चे हैं जो हर रोज धमाचौकड़ी करते फिरते हैं।ज्योति को बिठाकर शांति काम में लग गई।ज्योति का ध्यान तो पूजा से ज्यादा घर की सजावट देखने में था। वह चारों ओर कमरे का मुआयना करने लगी।घर में कुछ भी कीमती नहीं था। सभी चीजें साधारण थीं पर व्यवस्थित ढंग से रखी थीं। ड्राँईंग रूम में एक-दो दीवान रखे थे जिनपर कुशन रखे थे,केन का एक सोफासेट था और दीवारों पर एक दो पेंटिंग्स लगी थी।मन ही मन शांति के घर की तुलना अपने घर से करती हुई ज्योति गर्वित होने लगी।पूजा समाप्त हुई।सबने प्रशाद खाया, फिर खाना आरंभ हुआ। तब तक ज्योति के पति भी आ गए थे।शांति ने खाने के विषय में कुछ नहीं कहा था इसलिए ज्योति प्रशाद लेकर घर जाने की इजाजत लेने लगी। परन्तु शांति नहीं मानी।कहने लगी — ”ज्योति दी, तुम पहली बार तो मेरे घर आयी हो, ऐसे थोड़े ही जाने दूँगी, खाना तो खाकर ही जाना होगा।” फिर आग्रह करके खाने पर बिठा दिया। आस पड़ोस के सभी लोग हाथ में प्लेटें लिए एक दूसरे से गप्पें मारते, ठहाके लगात खाने में व्यस्त थे। ज्योति ने अपने पति की तरफ देखा। उन्हें तो जैसे अलादीन का चिराग मिल गया था। सबसे खूब हँस-हँसकर बातें कर रहे थे। ज्योति को ईर्ष्या होने लगी..”मेरे साथ तो कभी इतना खुश होकर बात नहीं करते”…उसने बुरा सा मुँह बनाया।इसी बीच मौका पाकर बच्चे भी अपनी मजलिस में शामिल हो गए थे। ज्योति को गुस्सा तो बहुत आया पर मन मसोस कर रह गई। शांति सबके पास जा-जाकर पूछ- पूछकर बड़े प्यार से खिला रही थी।


खाना खाकर जब ज्योति लौटने लगी तो शांति ने कहा — ”दीदी घर जाकर रामू और बजरंगी को भी खाने के लिए भेज देना।”


ज्योति शांति का मुँह देखने लगी। रामू और बजरंगी उसके नौकरों का नाम था परन्तु शांति ऐसे कह रही थी मानो दोनों उसके घर के सदस्य हों। ज्योति ने बहाना बनाया पर शांति कहाँ मानने वाली थी। ज्योति ने घर जाकर दोनों को खाने के लिए भेज दिया। खा-पीकर जब सब घर लौटे तो सभी का चेहरा खिला हुआ था।बच्चे चहक रहे थे, पति गुनगुना रहे थे और दोनों नौकर शांति के गुण गाते चले आ रहे थे। एक तो वैसे ही ज्योति का मूड शांति के घर जाकर खराब हो चुका था, अपने घर का अनुशासन टूटते देखकर उसका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा।आव देखा न ताव, सब पर बरस पड़ी। पलभर में सारा वातावरण बदल गया।पुनः पहले की सी चुप्पी छा गई। सभी सहमे से अपने -अपने कमरे में सोने चल दिये। ईर्ष्या में जलती,गुस्से से पैर पटकती ज्योति भी सोने चल दी।


सुबह जब आँख खुली तो ज्योति से उठा नहीं गया।सारा शरीर बुखार से तप रहा था।उसने पति को जगाकर बताया।फौरन डॉक्टर बुलाया गया। डॉक्टर ने चेकअप के बाद बताया कि अधिक तनाव और गुस्से की वजह से ब्लडप्रेशर बढ़ गया,कमजोरी हावी हो गई और बीमारी ने आ घेरा।बुखार उतरने की गोली देकर और पूरी तरह से आराम करने को कहकर डॉक्टर चला गया।ज्योति ने अकेले में नौकरों को किचन में घुसने और चीजें छूने की इजाजत नहीं दी थी,अतः नाश्ता नहीं बना और पति तथा बच्चों को बिना नाश्ता किये ही दफ्तर और स्कूल जाना पड़ा। ज्योति ने सोचा कि खाना वह किसी तरह सामने बैठकर बनवा लेगी।बड़ी हिम्मत करके वह उठी और किचन में गयी।लेकिन, किसी तरह शांति को उसकी बीमारी का पता चल गया और वह तुरंत ज्योति के पास पहुंची — ”यह क्या ज्योति दी, बीमारी की हालत में तुम बैठकर खाना बनवाओगी…मैं ऐसा हरगिज नहीं करने दूँगी.. जब तक तुम पूरी तरह ठीक नहीं हो जाती, भाईसाहब और बच्चे मेरे घर पर ही खायेंगे.., चलो तुम चलकर आराम करो.।”.ज्योति मना करती रही पर शांति ने एक न सुनी।उसे किचन से लाकर बिस्तर पर लिटा दिया।


अब तो सारा सारा दिन शांति उसकी सेवा में लगी रहती।उसका एक पैर अपने घर में होता तो दूसरा पैर ज्योति के घर पर।छोटी से छोटी जरूरत का ध्यान रखती ।सारे खाने पीने का भार शांति ने अपने ऊपर ले लिया। पति ऑफिस से लौटकर सीधा शांति के घर पहुंच जाते,शांति के पति और दूसरे लोगों से गप्पें लगाते, तरह -तरह के व्यंजन खाते और हँसते-गुनगुनाते घर लौटते। बच्चे तो शांति से ऐसे चिपक गए कि कभी-कभी तो रात को भी घर नहीं लौटते,शांति के घर ही सो जाते। ज्योति को यह सब अच्छा तो नहीं लगता था पर शांति की सेवा के आगे वह कुछ कह भी नहीं पा रही थी। चार-पाँच दिनों तक जब यह सिलसिला चलता रहा तो एक दिन ज्योति ने अपने पति से शिकायत की कि शांति ने उसके सारे घर को अव्यवस्थित कर दिया है।यह सुनते ही उसके पति बिफर पड़े — ”घर..?घर का मतलब भी समझती हो तुम..? रंग बिरंगे कालीनों और कीमती सामानों के शो-रूम जैसे घर को घर कहते हैं क्या..? यह घर नहीं है। घर तो चिलचिलाती धूप में खड़े उस वृक्ष का नाम है,जिसके नीचे लोग आराम से टांगें फैलाकर ठंडी खुली हवा में अपनी थकान दूर करते हैं।यह ईंट-पत्थर की इमारत, जिसे तुम घर कह रही हो, कभी भी घर नहीं हो सकता। यह तो केवल तुम्हारे साम्राज्य की हद है,जहाँ की तुम तानाशाह हो…बच्चे खुलकर हँस नहीं सकते..अपनी मर्जी से खेलकूद नहीं सकते..क्या खाक विकास होगा उनका ? मैं जरा पैर फैलाकर बैठ जाऊँ तो तुम्हें बुरा लगने लगता है…रात जरा देर तक टी.वी. देख लूँ तो अगले दिन घंटे भर का लेक्चर सुनना पड़ता है…भला डर और तानाशाही से कहीं घर बनता है..?..घर बनता है प्यार से,अपनापन से, सहानुभूति से..जो तुमने कभी दिया ही नहीं.. न मुझे, न अपने बच्चों को..जाकर देखो शांति के घर..कुछ ज्यादा नहीं है उसके पास, पर सब पर अपनी ममता लुटाती रहती है…क्या अपना,क्या पराया..सबसे एक सा स्नेह है उसे…उसका घर पराया होकर भी अपना लगता है और अपने घर में आते ही परायेपन का अहसास होता है…..”। इसके आगे ज्योति सुन नहीं सकी।उसने आँखें बंद कर लीं।अब तक जो भी अर्जित किया था, सब बेमानी निकला। वह सारी रात सो नहीं सकी।खुद को पराजित सा महसूस करती रही।


अगली सुबह जब शांति उससे मिलने आई तो उसने बातों-बातों में उससे पूछ ही लिया — ”शांति तुम अपने घर को इतना सजीव कैसे रखती हो..?”शांति कहने लगी — ”क्यों शर्मिंदा करती हो दीदी?भला मुझे घर का रख-रखाव कहाँ आता है?..बस, मैं तो इतना जानती हूँ कि घर में व्यक्ति वैसे ही है जैसे शरीर में धड़कन…जिस तरह स्वच्छंद धड़कनें ही मन और तन-दोनों को स्वस्थ रखती हैं, उसी तरह व्यक्ति की स्वच्छंदता ही व्यक्ति को सजीव बनाये रखती है। हर व्यक्ति के मन में,चाहे वह किसी भी उम्र का हो,एक छोटे बच्चे का वास होता है। व्यक्ति के उस शिशु-मन को घर के अंदर ही पूरा स्नेह और पूरी आजादी मिलनी चाहिए, तभी वह चहकेगा और उसके व्यक्तित्व का पूरा विकास होगा ।” ज्योति के आँसू निकल पड़े। सचमुच, शांति ने कैसी सरलता से कितनी गहरी बात बतायी थी। आज उसे समझ आया कि क्यों सब शांति को इतना चाहते हैं ।उसने शांति को गले से लगा लिया और मन ही मन में यह फैसला किया कि अब वह भी अपने घर को घर बनायेगी, सही मायने में..।

Recent Posts

See All
"ठुकरा के मेरा प्यार "

*"ठुकरा के मेरा प्यार *"*- *एक समीक्षा** ठुकरा के मेरा प्यार सीरीज़ एक हिंदी ड्रामा है,जो डिज्नी+ हॉटस्टार पर दिखाया जा रहा है।इसका...

 
 
 
रील की बीमारी, रीयल जीवन पर भारी "

“रील की बीमारी,रीयल जीवन पर भारी"  अभी हाल के दिनों में शिक्षक दिवस के अवसर पर एक अजीब सा वीडियो वायरल हो गया। किसी शिशु विद्यालय में...

 
 
 

Comments


bottom of page