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"कितना बदल गया इन्सान"

  • Writer: Archana Anupriya
    Archana Anupriya
  • Jun 14, 2021
  • 6 min read

" कितना बदल गया इन्सान"


परिवर्तन संसार का नियम है और परिवर्तन ही नयापन लाने का मुख्य कारण भी है। इस मनुष्य ने हजारों-लाखों सालों की विकास यात्रा की है और इस विकास यात्रा में न जाने कितने परिवर्तनों के साक्षी बने हैं। पहले और आज के जमाने का सबसे बड़ा जो अंतर है,वह समय के सदुपयोग का है। दिन और रात के 24 घंटे पहले भी थे,आज भी हैं लेकिन, पुराने जमाने में लोगों के पास काफी समय हुआ करता था। आपस में मिलना-जुलना, एक दूसरे के साथ समय बिताना, किसी भी सामाजिक व्यवहार में मिलजुल कर काम करना, आपसी विश्वास, भरोसा- सब कुछ सकारात्मक रूप से लोगों के आपसी व्यवहार में परिलक्षित था। आज भी वही चौबीस घंटों के दिन और रात हैं परंतु,आज किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। सभी आज मशीन बने भागे चले जा रहे हैं और पहुँच कहीं नहीं रहे हैं। हर आदमी किसी न किसी काम में व्यस्त है और मुश्किल से अपने रिश्तेदारों, मित्रों और दूसरे लोगों से बात करने के लिए वक्त निकाल पा रहा है।नतीजा है कि एक ही घर में जैसे कई घर बन गए हैं।पहले हम प्रकृति के बहुत करीब थे। बाग,बगीचे, हरियाली, नदी आदि सभी प्रदूषण से लगभग मुक्त थे। कल-कारखाने तो तब भी थे लेकिन, संख्या में कम थे। हम सब इतने महत्वाकांक्षी नहीं थे। पानी तक इतन साफ हुआ करते था कि हम नलकों से ही पानी पी लिया करते थे। बिसलेरी, मिनरल वाटर, आर.ओ. आदि का तो नाम भी नहीं सुना था। फल, सब्जियाँ, दूध, खानपान आदि शुद्ध और स्वास्थ्यवर्धक थे। आजकल के फल, सब्जियों, दूध आदि की तरह मिलावट और केमिकल भरे नहीं हुआ करते थे। आज लोगों की लालच ने ऐसी कई नकारात्मक बातोंको जन्म दे दिया है, जिसकी वजह से खानपान की चीजों, फलों, सब्जियों आदि में मिलावटी तत्व मिलने लगे हैं और रसायनिक पदार्थों का समावेश होने लगा है। आज का मनुष्य अपनी महत्वाकांक्षा के कारण प्रकृति से दूर हो चला है।आज हर व्यक्ति को टीवी, कूलर, एसी, फ्रिज, वाशिंग मशीन जैसी सुविधाएँ चाहिए।अपने घर का काम करना लोगों के लिए मानो अपमान का विषय बन गया है। आज मनुष्य घर के कामकाज के लिए तो बाईयाँ रखता है,और स्वयं व्यायाम करने जिम जाता है। शहरों के शहर कंकरीट जंगल में तब्दील होते जा रहे हैं और हरे-भरे जंगल,बाग,बगीचे काटे जा रहे हैं।फलस्वरूप, जरूरत पड़ने पर ऑक्सीजन के रूप में साँसों के लिए हम़े इधर-उधर भागना-दौड़ना पड़ रहा है। समय के साथ हम सुविधाभोगी होकर प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं। खानपान में भी जबर्दस्त बदलाव देखने को मिला है। पहले के लोग जमीन पर साथ बैठकर सेहतमंद और गर्म खाना खाया करते थे। हरी सब्जियाँ, फल,मेवे,दूध,घी आदि पौष्टिक खाना प्रचुर मात्रा में खाते थे, परंतु ,आज की पीढ़ी नूडल्स, पिज़्ज़ा, बर्गर, मैगी जैसे जंक फूड के पीछे ज्यादा दीवानी है ।आज की पीढ़ी सेहत से ज्यादा स्वाद को प्राथमिकता देने लगी है, जिसकी वजह से रोग प्रतिरोधक क्षमता पहले की अपेक्षा कम हो रही है और बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं। पहले और आजकल के लोगों के पहनावे में भी अंतर आया है। पहले जहाँ साड़ी और धोती की प्रचुरता थी,जो पारम्परिक और आरामदायक वस्त्र माने जाते हैं, आज लोग पाश्चात्य सभ्यता की नकल में जीन्स,पैंट, सलवार-कमीज आदि ज्यादा पहनने लगे हैं।हालांकि कपड़ों के पहनावे का बदलना बहुत गंभीर बात तो नहीं, परन्तु कम और छोटे कपड़ों का पहनावा तन ढँकने का काम कम और अंग प्रदर्शन ज्यादा करता है,जो हमारी संस्कृति और सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं कहा जा सकता।तकनीक के अद्भुत विकास ने लोगों के शौक और उनकी जरूरतें पूरी तरह से बदल दी हैं। पहले जब बिजली का अभाव था और बिजली चली जाया करती थी तो लोग लालटेन, मोमबत्ती आदि का सहारा लेते थे। रात में पूरे परिवार का छतों पर खुले आसमान के नीचे सोना, मोमबत्ती की हल्की - हल्की रोशनी में गप्पें मारना, ताड़ के पत्तों से बने हाथ वाले पंखों से खुद को ठंडक देना, परिवार में एक अजीब सी समीपता का अहसास कराता था। आज लगभग हर घर में इनवर्टर है, बिजली की प्रचुरता है, एसी,फ्रिज आदि की व्यवस्था है,हर घर में सारी सुविधाएँ मौजूद हैं परंतु, परिवार की आपसी नज़दीकियाँ कम हो गई हैं।हर घर में मानो एक साथ कई घर बसने लगे हैं। पहले कम घरों में टीवी थे तो सब लोग मिलजुलकर मनोरंजन में भाग लेते थे,लेकिन, अब तकनीक ने खूब विकास किया है और नतीजन, हर व्यक्ति के हाथ में आज मोबाइल दिखता है। बच्चे, बड़े सभी घर में होते हुए भी साथ बैठने की जगह अपने-अपने मोबाइल के साथ व्यस्त रहते हैं। जमाना डिजिटल हो गया है। रुपए पैसे की जगह क्रेडिट कार्ड ने ले ली है। चिट्टियाँ,जिनका बेसब्री से पहले इंतजार किया करते थे,जिनके हर शब्द से अपनों के ह्रदय की धड़कन सुनाई देती थी, अब वीडियो कॉलिंग और व्हाट्सएप कॉल में बदल गए हैं। लोग भौतिकवादी ज्यादा होने लगे हैं। युवा पीढ़ी कमाती भी खूब है और खर्च भी खूब करती है।उन्हें रोकने-टोकने और सही मार्गदर्शन देने पर घर के बुजुर्गों को उनकी नाराजगी झेलनी पड़ती है। संयुक्त परिवार की जगह अब एकल परिवार का चलन है।बड़े घरों की जगह छोटे फ्लैटों ने ले लिया है। पुराने समय में जहाँ दादा,दादी, चाचा, ताऊ,ताई आदि परिवार के सदस्य एक साथ रहा करते थे,अब एकल परिवार में बस माता पिता और बच्चे रहते हैं,जिसकी वजह से बच्चों की परवरिश में भी बदलाव आया है। बूढ़े बुजुर्गों के प्रति सेवा भाव में काफी कमी आई है और वृद्धाश्रम का चलन बढ़ने लगा है। नौकरी, मँहगाई और पैसों की ललक ने लोगों को घर से दूर के इलाकों में, विदेशों में बसने पर मजबूर कर दिया है ।फलस्वरूप, आज के बहुत से बच्चे अपने नाना-नानी दादा-दादी को पहचानते तक नहीं हैं।संयुक्त परिवार बहुत कम या न के बराबर ही दिखाई देते हैं।इससे लोगों का अकेलापन बढ़ा है और संवेदनशीलता में कमी आयी है।एक चीज जो पुराने जमाने से आज तक कायम है और बिल्कुल नहीं बदली है वह है,धार्मिक मान्यताएं। मंदिर जाना, पूजा, प्रार्थना, व्रत आदि पहले की तरह ही आज भी लोग मानते हैं लेकिन, इस धार्मिक मान्यताओं में आडंबर, धन का अपव्यय आदि पहले के मुकाबले थोड़ा बढ़ा है.. हालांकि, अब नई पीढ़ी के युवा इन सब आडंबरों की पोल खोलने में भी पीछे नहीं रहे हैं। विश्वास और भक्ति आज भी वही है परंतु, तरीकों व्यवहारों और सोच में परिवर्तन दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त, महिलाओं की स्थिति में पहले की अपेक्षा लोगों की सोच में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है।आज महिलाएं देर रात तक काम करती हैं। हर क्षेत्र में उन्होंने अपने कदम जमाए हैं। घरेलू वातावरण भी उनके अनुकूल होने लगे हैं ।पहले की अपेक्षा उनके अधिकार और उनकी आजादी में काफी परिवर्तन दिखाई दे रहा है।हर जगह उनकी स्थिति बेहतर होती दिख रही है लेकिन, अभी भी कई मुकाम और हासिल करने की जरूरत है और इसके लिए प्रयास भी जारी है। आज की स्त्री कई मामलों में पुरुषों के समकक्ष खड़ी दिखाई देती है और अपने अधिकारों के लिए प्रयासरत है। कुल मिलाकर देखें, तो पहले का जमाना जहाँ आधारभूत जरूरतों पर आधारित था,संवेदनशील था,विशाल ह्रदय वाला था, आज के जमाने के के मनुष्य का व्यक्तित्व बहुत संकुचित हो चला है। प ले मनुष्य जड़ें सींचता था, आज आसमान में उड़ान भरने पर उतारू है।विश्व छोटा होता जा रहा है और आदमी की महत्वाकांक्षाएँ बढ़कर आसमान छूने लगी हैं। इसकी वजह से पहले कदम धरती से जुड़े थे,अब जैसे हमारे कदम धरती से ऊपर होने लगे हैं और हम अपनी जड़ों से उखड़ने लग गए हैं। परिवर्तन का दौर तो सतत जारी रहेगा परंतु, हमें थोड़ा रुक कर यह विचार करना जरूरी है कि हमारी दिशा कहीं भटक तो नहीं गई है।महामारियों, परेशानियों ने थोड़ा ठहरने और रुक कर सोचने का मौका तो दिया है और हम अपनी गलती भी महसूस कर रहे हैं परंतु अपनेआप को कितना और कब तक सकारात्मक रूप से बदल पायेंगे, यह कहना मुश्किल है क्योंकि महात्वाकांक्षाओं की होड़ भी उतनी ही तेजी से जारी है। हालांकि, परिवर्तन को सकारात्मक बनाने के लिए भी अब हम प्रयासरत होने लगे हैं ,अपने रहन-सहन और अपनी जरूरतों को महसूस कर रहे हैं, जागृत हो रहे हैं। परंतु,जरूरत है अपनी मंजिल पहचानने की और मनुष्यता कायम रखते हुए आगे बढ़ने की। परिवर्तन तो अभी आगे और भी आयेंगे क्योंकि परिवर्तन शाश्वत है और प्रकृति का नियम है। इसीलिए,हमारा अस्तित्व इसी में है कि हम अपने पैर अपनी संस्कृति और संस्कारों की मिट्टी में जमाए हुए रखें और समय के साथ बदलते रहें तथा वसुधैव कुटुम्बकम की राह पर चलते हुए समस्त विश्व को एक सुनहरा और स्वर्गिक विश्व बनाये़।

अर्चना अनुप्रिया ©

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