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"जिंदगी और अंतरात्मा का द्वन्द्व"

  • Writer: Archana Anupriya
    Archana Anupriya
  • Apr 19, 2022
  • 2 min read

Updated: Jul 8, 2022


कल जिंदगी से उलझ पड़ी मैं

बात जब उसूलों पर आयी..

काँटों का पक्ष लिया मैंने

बारी जब फूलों की आयी..

समझाती रही जिंदगी मुझे

फायदे व्यवहारिकता के

करती रही मैं अनसुना

मुझे प्यार था नैतिकता से..


जिंदगी बोली--

“खुश रहो और मस्त रहो

नियम वियम सब जाने दो

बिखर जाने दो हँसी हवा मेंं

मत बाँधो कभी पैमानों को..

अरे..! मस्ती में तो सब चलता है

सुख मेंं बँधन स्वीकार न हो

कैसे भी चलो,बस आगे बढ़ो

समझौता भले उसूलों से हो

कोई राह मगर इन्कार न हो..

पहले खुद को बाँधता नियम से

फिर दुःखी होता मनुष्य..

निःस्वार्थ बनेगा, त्याग करेगा

तो कैसे सुखी होगा मनुष्य..?

स्वच्छंद बनो, बँधन तोड़ो

असली आनंद इसी में है

खुद की सोचो, दुनिया छोड़ो

घड़ियाँ बस चंद यही तो हैं..

जो नियम-कानून पर चलते हैं,

वे कहाँ कहीं पर फलते हैं..?

दुनिया भी उन्हें छोड़ देती है,

उनके रास्ते से मुख मोड़ लेती है..

कोई साथ नहीं देता,

वे अकेले ही होते हैं..

बाँध खुद को नियमों से,

नित अंगारों पर सोते हैं..

इसीलिए मेरी मानो,

व्यवहारिक बनो और खुश रहो..

मुखौटा भले नीति का हो,

कुछ और करो, कुछ और कहो..।”


उबल रही थी मैं सुनकर

जिंदगी की इन दलीलों को

जी चाह रहा था,सजा सुना दूँ,

स्वार्थ के इन वकीलों को..


मैंने कहा--

“ऐ जिंदगी ! सुन..

माना बड़ी हसीं है तू

सबका अस्तित्व, सबकी जरूरत

सबसे बड़ी खुशी है तू..

कुछ बातें तेरी अच्छी हैं-

‘आनंद है, जब हँसी सच्ची है’..

पर तेरी व्यवहारिकता बड़ी खोखली है,

बस कंकड़-पत्थर की पोटली है..

तू कैसी खुशी दिखाती है..?

बस नैतिकता से भटकाती है..

स्वार्थ सिद्ध करके क्या होगा?

किसका क्या भला होगा?

हम उस परमपिता की संतान हैं,

क्या तू इस तथ्य से अनजान है..?

सृष्टि के कण-कण नियम से चलते हैं,

तभी तो चाँद और सूरज

समय से निकलते हैं..

नियमों में बँधा है,

तभी तो सभ्य समाज है..

जंगल की अराजकता का

यहाँ कहाँ रिवाज है..?

मौसम, काल, प्रकृति, समाज-

सबके अपने नियम हैं..

नैतिकता ही वह बेड़ी है,

जिससे मानवता पर संयम है..

काँटे अगर नहीं होंगे,

फूल की रखवाली करेगा कौन?

कैसे बगिया मुस्कुरायेगी,

पेड़-पौधे तो रहेंगे मौन..?

स्वतंत्रता तभी जब अंकुश हो,

नहीं तो पशु हो जायेगा मानव..

अपनी करेगा, मारेगा, मरेगा,

क्या मनुष्य न हो जायेगा दानव..?

असली खुशी कहाँ स्वार्थ में है?

सच्चा सुख तो बस परमार्थ मेंं है..

सूरज देता गर्मी और चाँद शीतलता

हमारे जीवन की खातिर ही

तो है हिमवान पिघलता..

पेड़ भी तो हमें फल देते,

सागर कब पानी पीते हैं..?

ये सभी अनमोल रतन सृष्टि के,

कब अपने लिए जीते हैं..?

इन्हीं गुणों की खातिर तो हम

उन्हें पूजते हैं, आदर्श कहते हैं..

हम उनकी बात कहाँ करते हैं,

जो अपने स्वार्थ में निहित रहते हैं..?

नैतिक उसूलों का बड़ा मोल है भाई..!

उनको कम मत आँको तुम..

वे ही देव-दानव का फर्क बताते,

सारे वेद-पुराण झाँको तुम..

नैतिक मूल्यों पर चलनेवाला,

माना अकेला हो जाता है..

पर अपने उसूलों की ताकत से,

सबके मार्ग बनाता है..

नैतिकता के बँधन में ही,

शांति है, विकास है..

बिना उसूलों की जिंदगी तो

बस मानवता का ह्रास है..

नदियाँ भी जब बँधी हों किनारों से,

तभी तो सुख देती हैं..

बिन बाँध की नदियाँ अगर हों,

तो बस सारा शहर डुबोती हैं..

प्रकृति नियम से चलती है,

तभी जीवन पनपता है,

अगर वह उसूलों पर नहीं चले,

तो प्रलय आ धमकता है..

यह नीति ही तो है कि

जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा..

अरे, जब बीज ही बबूल के होंगे,

तो भला आम कहाँ से उगेगा..?”


सुनकर यह, चुप हो गयी जिंदगी,

उत्तर न था मेरे तर्कों का..

अंतर समझ गयी थी अब वो

व्यवहारिक और नैतिक कर्मों का...।


©अर्चना अनुप्रिया।

सौजन्य.. "और खामोशी बोल पड़ी"(काव्य-संग्रह)




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