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"मतदान में महिलाएँ"

  • Writer: Archana Anupriya
    Archana Anupriya
  • May 7, 2024
  • 7 min read

“मतदान में महिलाएं”

21वीं सदी आरंभ से ही महिलाओं की सदी रही है। पिछले वर्षों में महिलाओं का योगदान हर क्षेत्र में बढ़ा है। आर्थिक हो या राजनीतिक, हर दिशा में महिलाओं के कदम पहले की तुलना में अधिक मजबूत हुए हैं। इसका ही परिणाम है कि आज भारत की महिलाएं राजनीति,व्यवसाय, कला,विज्ञान तथा नौकरियों में पहुंचकर नए आयाम गढ़ रही हैं।यही कारण है कि वैश्विक स्तर पर भारत की नारियों ने अपनी एक नितांत सम्मानजनक जगह कायम कर ली है। वर्तमान समय में महिलाओं के उत्थान के लिए सरकारें भी अनेक योजनाओं का संचालन कर रही हैं, जिनकी वजह से अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ राजनीतिक,सामाजिक क्षेत्रों में भी आधी आबादी का योगदान बढ़़ा है और चुनाव काल में यह पूरी तरह से प्रदर्शित भी होता है। किसी भी राजनीतिक पार्टी की जीत बहुत हद तक अब स्त्रियों के योगदान पर निर्भर करती है। यही कारण है कि राजनीतिक पार्टियाँ भी अब इस आधी आबादी को आकर्षित करने के लिए अपने-अपने चुनावी मेनिफेस्टो में तरह-तरह के आकर्षण डालती रहती हैं और स्त्रियों को लुभाती रहती हैं।‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, ‘उज्जवला गैस योजना’, ‘तीन तलाक’ जैसे मुद्दे ‘मुफ्त बिजली’, ‘महिलाओं को फ्री यातायात सेवा’इत्यादि योजनाएं  राजनीतिक पार्टियों ने अपने-अपने स्कीमों में शामिल किए हैं और इन योजनाओं ने चुनावी प्रक्रिया में महिलाओं का प्रतिशत बढ़ाया भी है।

भारत में महिलाओं की स्थिति हमेशा एक समान नहीं रही है। ऐतिहासिक आकलन करें तो वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक महिलाओं की स्थिति में बहुत उतार-चढ़ाव रहा है। पहले के दिनों में राजनीतिक स्तर पर शासक चुनने में महिलाओं का योगदान बहुत ही सीमित स्तर पर होता था।वैसी महिलाएं, जो सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर अत्यंत जागरूक थीं और सामने वाले से सैन्य और बौद्धिक स्तर पर लोहा लेने की हिम्मत रखती थीं, वे खुलकर शासकों के समर्थन में हिस्सा ले पाती थीं। प्राचीन इतिहास, मुगल इतिहास और अंग्रेजी हुकूमतों के अध्ययन से महिलाओं की राजनीतिक, सामाजिक भागीदारी के अत्यंत सीमित आंकड़ों का पता चलता है। आजादी के बाद भी भारतीय लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया तथा राजनीतिक प्रक्रिया में कुछ पढ़ी-लिखी खुले विचारों वाली महिलाएं ही अपनी भागीदारी दिखा पाती थीं। परंतु,जैसे-जैसे स्त्रियों की स्थितियों में मजबूती आई, चुनाव, राजनीति और प्रशासन में स्त्रियों का प्रतिशत बढ़ता गया।1975 में जब इमरजेंसी लागू हुआ था और उसके विरोध में जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन का आवाहन किया था तब पहली बार बहुतायत  संख्या में महिलाओं ने आंदोलन में हिस्सा लिया था तथा चुनाव और चुनाव प्रक्रिया में बढ़-चढ़कर अपना योगदान दिया था। धीरे-धीरे महिलाएं जागरूक होती गयीं और यह प्रतिशत बढ़ता गया।विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के पिछले चुनाव के नतीजे जब  सामने आये थे तब इन नतीजों ने भारतीय राजनीति को एक नया आयाम प्रदान किया था और सत्ता में सरकार की एक स्थिर सरकार के रूप में पुनः वापसी हुई थी। ऐसा भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू एवं इंदिरा गाँधी के बाद हुआ था।चुनाव का यदि लैंगिक द्रष्टिकोण से विश्लेषण करें तो पाएंगे कि इस चुनावी समर में देश की आधी आबादी की मुख्य़ भूमिका रही थी और यह उसी का परिणाम था। पिछले आम चुनाव के नतीजे में देश की महिला मतदाताओं ने सिर्फ़ अपनी उपस्थिति ही नहीं दर्ज कराई थी बल्कि, भारतीय लोकतंत्र में पहली बार ऐसा हुआ था कि 78 महिलाए सांसद के रूप में निर्वाचित होकर आईं थीं।वहीं पुरुष सांसदों की संख्या 2014 में 462 थी जो 2019 में घटकर 446 रह गई। इससे उनकी संख्या में करीब 3% की कमी आई थी। आम चुनाव के लिए खड़े हुए 8,000 उम्मीदवारों में से महिला उम्मीदवारों की संख्या 10% से भी कम थी परन्तु संसद में जीतकर पहुंचने वाली महिलाएँ सांसदों का 14 प्रतिशत थीं।यह भारत की चुनावी राजनीति में आ रहे सकारात्मक बदलाव का ही संकेत है कि ये चुनाव महिला उम्मीदवारों से जुड़े कई राजनैतिक पूर्वाग्रहों को दूर करने में मददगार साबित हो सके हैं। साथ ही महिलाओं का राजनीतिक सशक्तीकरण करने भी कारगर सिद्ध हो रहे हैं।बतौर मतदाता यदि हम महिलाओं कि चुनावी भागीदारी पर चर्चा करें तो हमें पता चलता है कि साल 2009 और फिर 2014 के आम-चुनावों में महिलाओं की मतदान के माध्यम से जो भागीदारी थी उसमें 2019 के चुनाव-काल में वृद्धि हुई है। उस चुनाव में महिलाओं ने पहली बार पुरुषों से अधिक मतदान किया था।यह भी तथ्य ग़ौर करने लायक है कि भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था कि 67.11% मतदाताओं ने अपने मतदान अधिकार का इस्तेमाल किया था। पिछले भारतीय चुनावों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि उस चुनाव में देश की 13 सीटों पर महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से अधिक थी। 1962 के आम चुनावों में महिला मतदाताओं का प्रतिशत 45 था। वहीं 2014 में यह बढ़कर 66 हो गया और 1962 के आम चुनावों में पुरुष एवं महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत का अंतर जो17% था वो 2014 में 1.4% था और  2019 के चुनावों में घटकर मात्र यह 0.4% रह गया है। 2019 के चुनाव में पिछले चुनावों की तुलना में 8.35 करोड़ अधिक महिला-वोटर थीं।यदि हम इन आंकड़ो को राज्यों के संन्दर्भ में अध्ययन करें तो ज्ञात होता ही कि इसमें उत्तर प्रदेश से 54 लाख के करीब, महाराष्ट्र में 48 लाख, बिहार में 42.8 लाख, पश्चिम बंगाल 42.8 लाख तमिलनाडु 39 लाख़ मतदाता शामिल थे।इस चुनाव में महिलाओं ने पहली बार पुरुषों से अधिक मतदान किया।यह भी तथ्य उल्लेखनीय है कि भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार हुआ है कि 67.11% मतदाताओं ने अपने मतदान अधिकार का इस्तेमाल किया है।

चुनाव में पहली बार महिला प्रतिनिधि एवं मतदाताओं की संख्या में जो बदलाव आया है उसमें राजनीतिक दलों ने भी अपनी चुनावी रणनीति एवं घोषणा पत्रों के माध्यम से मुख्य भूमिका निभाई है, जिसने महिला-पुरुषों के बीच में मतदान करने के अंतर को कम किया है.. जैसे, उड़ीसा के मुख्यमंत्री, बीजेडी नेता नवीन पटनायक ने आम चुनाव की तारीख़ घोषणा होने से पूर्व ही ऐलान कर दिया कि उनकी पार्टी इस बार लोकसभा चुनाव में 33% सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करेगी। उसके बाद बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी 40% टिकट महिलाओं को देने की घोषणा कर डाली। इसके साथ बीजेपी एवं कांग्रेस ने भी पहले की अपेक्षा महिला प्रतिनिधियों को अधिक मौका दिया। इसका ही परिणाम है कि यह स्वतंत्र भारत में पहली बार यह हुआ कि जहाँ प्रथम लोकसभा में 5% महिलाएं थी,वहीं सोलहवीं लोकसभा में करीब 11% महिलाएं थीं। लोकसभा में 78 महिला सांसद यानि कुल संख्या का 14% महिलाओं ने लोकसभा में जनप्रतिनिधित्व किया। एक बात और ध्यान देने वाली है कि इन 78 महिला सांसदों में से एक तिहाई तो ऐसी हैं, जिनको जनता ने दोबारा संसद में भेजा है। इनमें से 11 उत्तर प्रदेश से 11 ही पश्चिम बंगाल से निर्वाचित हुई हैं। वहीं दलों के हिसाब से देखें तो, 22 टीएमसी के सांसदों में से 9 महिलाएं, उड़ीसा में बीजेडी ने 7 महिलाओं को टिकट दिया था और उसमें से 5 ने जीत दर्ज की थी। भाजपा ने देश भर में कुल 54 महिलाओं को टिकट दिए थे और उनमें से 40 को जनता ने लोकसभा में भेज दिया था। साथ ही कांग्रेस ने 53 महिलाओं को टिकट दिया इनमें से 6 जीत कर आयीं।

लिंग-विभाजित डेटा और चुनावी भागीदारी के आंकड़े बताते हैं कि आमतौर पर सभी स्तरों पर निर्णय लेने वाली संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। ये डेटा उन बाधाओं को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनका महिलाओं को अपने राजनीतिक अधिकारों का प्रयोग करते समय सामना करना पड़ता है। हालाँकि, लिंग-विभाजित डेटा अक्सर अनुपलब्ध होता है, खासकर वैश्विक स्तर पर।

कानूनी और नीतिगत ढाँचे चुनावी खेल के नियमों को परिभाषित करते हैं और पूरी चुनावी प्रक्रिया में लैंगिक समानता और महिलाओं की भागीदारी को सीधे प्रभावित करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार उपकरण महिलाओं को राजनीति और चुनावों में भाग लेने के अधिकार को सुनिश्चित करते हैं। राष्ट्रीय संविधान और घरेलू विधानों का महिलाओं की भागीदारी और प्रतिनिधित्व पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। चुनावी प्रणाली का चुनाव भी कानूनी ढांचे का एक प्रमुख पहलू है, जिसमें महिलाओं के चुनाव के संबंध में ठोस निहितार्थ हैं। कोटा सहित टीएसएम को अपनाना, खेल के मैदान को समतल करने में योगदान दे सकता है और निर्वाचित निकायों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने में एक महत्वपूर्ण कारक हो सकता है।दुनिया भर में, ईएमबी और अन्य संबंधित हितधारक चुनावी प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में लैंगिक समानता और महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के प्रयास करते हैं, जिसमें चुनाव पूर्व, चुनावी और चुनाव के बाद की अवधि शामिल है। विभिन्न देशों में ईएमबी ने महिला मतदाताओं के पंजीकरण को बढ़ावा देने के लिए कई लिंग-लक्षित हस्तक्षेपों को लागू किया है, जिनमें केवल महिला पंजीकरण टीमें, मोबाइल पंजीकरण और आउटरीच अभियान शामिल हैं। उम्मीदवार के नामांकन और पंजीकरण चरण के दौरान, महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिए कई टीएसएम को अपनाया जा सकता है, जैसे उम्मीदवार सूचियों में विधायी कोटा स्थापित करना और सूचियों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के कुछ स्तरों के अनुपालन के लिए प्रोत्साहन के रूप में सार्वजनिक धन उपायों का उपयोग करना। दूसरों के बीच में। ईएमबी, नागरिक समाज और अंतर्राष्ट्रीय संगठन महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए नागरिक और मतदाता अभियान शुरू करने में योगदान दे सकते हैं, विशेष रूप से महिलाओं को लक्षित करके या सामान्य आबादी को संबोधित आउटरीच संदेशों में लिंग को मुख्यधारा में लाकर। कुछ देशों में, महिला नेताओं और उम्मीदवारों ने अभियान के दौरान अपने प्रदर्शन को बेहतर बनाने और बेहतर चुनावी परिणामों तक पहुंचने में मदद करने के लिए क्षमता निर्माण पहल में भाग लिया है। मतदान प्रक्रिया के दौरान, ईएमबी लैंगिक समानता और महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए विशिष्ट उपाय अपना सकते हैं, जैसे मतदान केंद्रों को सुलभ स्थानों पर रखना, समावेशी पहचान प्रक्रियाओं की स्थापना करना, लिंग पृथक मतदान तंत्र स्थापित करना, पारिवारिक मतदान से लड़ना और वोट गोपनीयता सुनिश्चित करना। विवाद समाधान तंत्र महिला उम्मीदवारों के लिए सुलभ और स्पष्ट होना चाहिए, महिलाओं को उनकी संरचनाओं में एकीकृत करना चाहिए और लैंगिक भेदभाव से बचना चाहिए। महिलाओं का वोट प्रतिशत बढ़ाने में सफल तौर पर सरकारी योजनाएं भी अहम् भूमिका निभा रही हैं।विभिन्न राज्यों की सरकारें हों या केंद्रीय सरकार,सभी महिला वोटरों के लिए नयी-नयी योजनाएं ला रही हैं।यही कारण है कि राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी लगातार बढ़ रही है।स्वामी विवेकानन्द का मानना है कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है, वहाँ की महिलाओं की स्थिति। हमें महिलाओं को ऐसी स्थिति में पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्याओं को अपने ढंग से ख़ुद सुलझा सकें। हमारी भूमिका महिलाओं की ज़िंदगी में उनका उद्धार करने वाले की न होकर उनका साथी बनने और सहयोगी की होनी चाहिए क्योंकि भारत की महिला इतनी सक्षम है कि वे अपनी समस्याओं को ख़ुद सुलझा सकें।कमी अगर कहीं है तो बस इस बात की कि हम एक समाज के तौर पर उनकी क़ाबलियत पर भरोसा करना सीखें। ऐसा करके ही हम भारत को उन्नति के रास्ते पर ले जा पाएंगे। ऐसे में भारतीय राजनैतिक परिवेश में बहुतायत संख्या में महिला सांसद चुन कर आयेंगी और देश की अन्य महिलाओं की आवाज को संसद में मज़बूती से उठायेंगी और  साथ ही महिलाओं से जुड़े समकालीन ज्वलंत मुद्दों को भी सदन में मज़बूती से रखेंगी।यदि ये निर्वाचित सांसद सभी महिलापरक विषयों को गंभीरता से सदन में उठाती हैं और इस दिशा में कुछ ठोस निर्णय लिया जाता है तो यह देश के एक बड़े नागरिक वर्ग के साथ न्याय होगा।यह कदम भारतीय लोकतंत्र को और मज़बूती प्रदान करेगा जो देश और समाज, सभी के हित में होगा।

                   अर्चना अनुप्रिया।

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