"अच्छा तो हम चलते हैं.."
- Archana Anupriya
- Feb 18, 2024
- 2 min read
“अच्छा.. तो हम चलते हैं..”
(पुस्तक-मेला डायरी..१८/०२/२०२४)
पुस्तक मेला विदा लेने को है..उत्साही उछलती मुस्कुराती किताबें थोड़ी बुझे मन से मिलीं आज।बिछोह कैसे अच्छा लगेगा उन्हें,जिनका अस्तित्व ही पाठकों के कारण है।ज्योंहि मैंने स्टैंड पर से एक किताब उठाकर पन्ना पलटा..दर्द छलक पड़ा उसका–
"क्या हुआ"?उसके बुझे मन को देखकर मैंने पूछा।
"कुछ नहीं, बस ऐसे ही.."उसने रुआँसी आवाज में कहा।
"ऐसे ही क्या?..अरी, बोल न.."
मेरी मीठी झिड़की सुनकर वह कहने लगी.."जा रही हूँ यहाँ से,अब कल से किसी पाठक को नहीं मिल पाऊँगी,यह सोचकर ही जी कैसा-कैसा हो रहा है..कैसे रहूँगी उनके बिना.. पाठकों की वजह से ही तो मेरे अंदर जीवन पनपता है,वही तो जानते हैं मेरे होने का महत्व..मैं कोई बेजान सामान थोड़े ही न हूँ कि खरीदकर ड्राँईंगरूम में बस सजा दी जाऊँ..मुझे पढ़कर मेरे प्रेम में पड़ जाते हैं लोग,मेरे पन्नों से आती खुशबू सराबोर कर देती है रूह तक उनकी….तुम नहीं जानती, मैं उनके पास जाकर कितनी खुश हो जाती हूँ..मुझे हाथ में लेकर वे भूल जाते हैं सारी दुनिया-- दोस्त-यार,माता-पिता,भाई-बहन सब कुछ.. कितनी खुशी हो रही थी जब वे मुझसे मिलने आ रहे थे।अब कल से फिर बंडलों में बँधकर किसी अँधेरे कमरे के कोने में भेज दी जाऊँगी".. रुआँसी सी होकर वह कहने लगी।दुःख तो मुझे भी हो रहा था मेले के सूनेपन का सोचकर लेकिन,खुद को सँभालकर मैंने उसे समझाया--"इतनी उदासी ठीक नहीं है दोस्त, अगर दीपक जलने से पहले यह सोचने लगे कि मैं सबको रोशन करता हूँ और खुद अँधेरे में रहता हूँ तो फिर तो उसे आदर्श मानना बेमानी ही हो जायेगा.. यदि सूरज सोचने लगे कि दुनिया को उजाला देता हूँ फिर भी तिल-तिलकर जल रहा हूँ तो फिर उसे ईश्वरीय दर्जा कौन देगा? ये ईश्वरीय संस्कार विरले लोगों को ही नसीब होते हैं दोस्त,तुम्हें पता नहीं है तुम्हारी खुद की अहमियत.. तुम्हारी वजह से ही यह जिंदगी मानवीय जिंदगी है,तुम्हीं ने तो जानवर प्रवृत्ति को मानव प्रवृत्ति में ढलना सिखाया है..लोगों को अँधेरे से उजालों में आकर रहना सिखाया है..चाँद तारे,ग्रह नक्षत्र सब तुम्हारी वजह से ही तो मानव के नजदीक हैं, उन्हें समझ आते हैं, पढ़े जाते हैं,पूजे जाते हैं.. तुम क्या जानो क्या है तुम्हारी कीमत..अँधेरे से प्रकाश तक का सफर तुम्हीं तो आसान करती हो..और फिर,बंद कमरों में कहाँ पड़ी रहने वाली हो तुम?तुम्हें ढ़ूँढ़ते हुए तुम्हारे पाठक विभिन्न दुकानों के चक्कर लगायेंगे, तुम्हें ढ़ूँढ निकालेंगे और फिर कलेजे से लगाकर अपने घर ले जायेंगे।पीढ़ियों तक सबका ध्यान रखती रही हो तुम,सबको ज्ञान देती आयी हो..सबकी हिम्मत बनती आयी हो,फिर भी उदास हो रही हो..?अगले मेले में फिर नये रूप में सजकर आना..लोग हाथोंहाथ लेंगे तुम्हें.. कितनी प्रतीक्षा रहती है तुम्हारी,तुम्हारे चाहनेवालों को,कुछ खबर भी है..?"
मेरी बातें सुनकर मेरे हाथ में पड़ी किताब मुस्कुरा उठी..आँखों में आँसू झिलमिला तो रहे थे पर अब वे खुशी के आँसू थे, जो छलक कर बता रहे थे कि दोस्त,तुम ठीक कहती हो..थैंक्यू, मेरा हौसला बढ़ाने के लिए.. चलो विदा..”
“न..न..न..विदा नहीं…कहो, फिर मिलेंगें..”
“सी यू..”हँसती हुई किताब वापस स्टैंड पर खड़ी हो गयी।उसके चेहरे पर सकारात्मक आशा साफ चमक रही थी..मेरे मुँह से निकला-
“जिंदगी कैसे कटेगी तुम्हारे बगैर..
तू मेरा साथी ही नहीं,सारथी भी है”..
अर्चना अनुप्रिया
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