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"हॉस्टल का खाना..क्या फिट था वो जमाना..!"

  • Writer: Archana Anupriya
    Archana Anupriya
  • May 13, 2024
  • 4 min read

“हमारे हॉस्टल का खाना..

क्या फिट था वो जमाना..!”


आज अचानक व्हाट्सएप पर हमारे हॉस्टल के खाने की बात चली तो एक अजीब मीठा सा अहसास मुँह में घुल गया। रूह तक उन यादों का स्वाद गया और मन की क्षुधा बढ़ गयी।मन की भूख मिटाने के लिए जब यादों का फ्रिज खुला तो बीता हर पल,हर अहसास आज भी जेहन में उतना ही ताजा मिला। मुझे याद है, हम सभी लड़कियाँ उन दिनों मेस के खाने को लेकर कितनी शिकायतें करती रहती थीं..”दाल पतली है,चावल मोटा है,सब्जी ठंडी हैं,पनीर की संख्या गिनी चुनी है,खिचड़ी पतली है,नाश्ता ठीक नहीं वगैरह वगैरह..” जाने कितनी बार यह हमारे बीच चर्चा का विषय बनता था। मेस का खाना हमारे हॉस्टल के कैबिनेट-चुनाव का एक अहम् मुद्दा भी हो जाया करता था,जिसे बढ़चढ़कर हॉस्टल-कैबिनेट के चुनाव-प्रचार में भुनाया भी जाता था।वैसे भी यह स्वादिष्ट भोजन सिर्फ देश का मुद्दा थोड़े ही न है।यह हर उस भरे पेट का मुद्दा भी है,जिसकी जीभ को बढ़िया स्वाद की लत लग गई है।तब के दिनों में पिज्जा, बर्गर खाने का रिवाज तो था नहीं, न ही जोमैटो या स्वीगी जैसे फूड डेलीवरी वाले होते थे।लिहाजा,हॉस्टल के मेस का खाना एक जरूरी और असरदार मुद्दा था  और हमारे हॉस्टल की जागरूक लड़कियां वोट देने से पहले इस मुद्दे को ध्यान से गहरे उतारती थीं–”वोट कोई भी जीते,हमें तो भाई अच्छे-अच्छे खाने से मतलब है।” इसीलिए मि. वर्मा मेस-कॉन्ट्रैक्टर होने के साथ-साथ हमारे हॉस्टल चुनाव का एक मुद्दा भी हो जाते थे। कभी-कभी तो हमारे मेस कॉन्ट्रैक्टर,मि. वर्मा हमें गब्बरसिंह और मोगैम्बो जैसे विलेन लगने लगते थे क्योंकि गब्बरसिंह के जैसा वह कभी भी किसी का पेमेन्ट नहीं भूलते थे और हमें हमारी पसंदीदा चीजें एक्स्ट्रा लेने पर मजबूर करके वह मोगैम्बो जैसे दाँतें निपोरते खुश हुआ करते थे।उस वक्त नये जोशीले रक्त से भरी दुनिया बदल देने की बात करने वाली हम लड़कियाँ मेस जाते समय और मेस से लौटते समय मेस कॉन्ट्रैक्टर को बदल देने जैसी खूब बातें किया करते थे। मानो,मि. वर्मा को बदलकर  पता नहीं कौन सा रिवोल्यूशन ला देंगे परन्तु, अगले ही भोजनावकाश में कुछ बढ़िया सा खाने को मिल जाता था और हमारा आंदोलनकारी ज्वालामुखी फटने की बजाय शीतल झरने सा बहने लगता था।हम कभी भी बातें करने के अलावा मेस संबंधी कुछ और कर नहीं पाते थे।कभी कॉलेज या हॉस्टल में कुछ खास फंक्शन होता था तो खाना बड़ा ही स्पेशल मिल जाता था और रोज-रोज रोटी,दाल-चावल और खिचड़ी खा-खाकर बोर हो चुकीं हम लड़कियाँ मि. वर्मा के सौ खून माफ करके गरमागरम चिकन,पुलाव पर टूट पड़ती थीं।तब चिकन खाने का उतना चलन नहीं था,ज्यादातर मटन और कभी कभार कलेजी ही खाने को मिलते थे।इसीलिए जब खास दिन पर चिकन मिलता तो हम सब तारीफ और थैंक्स करके मि. वर्मा का कलेजा बुलंद करने में लग जाते थे। इसके अलावा व्रत का खाना बड़ा ही अच्छा होता था..हलवा,पूरी,मिठाई, तरह-तरह के फल आदि..  इसी चक्कर में कई अन्य लड़कियों ने भी व्रत करना आरंभ कर दिया था कि खाना तो अच्छा मिलेगा ही,अगर कहीं हमारे व्रत से भगवान प्रसन्न हो गये तो पति भी अच्छा मिल जायेगा।एक पंथ,दो काज..उस उम्र में अच्छे पति की कल्पना भी कम हसीं और प्रेरणादायक नहीं थी।मैंने और मेरी एक सहेली ने भी इसी चक्कर में बाद के दिनों में व्रत करना शुरू कर दिया था।


खाने की बात करें तो हॉस्टल में लड़कियों के घर से बनकर आये तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजनों की बात कैसे न करें।छुट्टियों से लौटती लड़कियों के सामान में उनकी माँओं द्वारा बनाये गये स्वादिष्ट व्यंजन जैसे,ठेकुआ,लड्डू,मठरी,आटे या मैदे की

निमकी,चूड़ा-मिक्स्चर आदि हुआ करते थे।माँएँ देती तो थीं अपनी प्यारी बेटियों के लिए लेकिन अज्ञानतावश इतना स्वादिष्ट बना देती थीं कि उनकी बेटियों के मुँह में जाने से पहले वे उनकी सहेलियों की जिह्वा से होकर गुजरते थे और अपनी माँ की प्यारी बेटियों के मुँह तक पहुँचने से पहले ही गायब से हो जाते थे। लड़कियाँ कोशिश तो बहुत करती थीं कि उनकी सहेलियों तक व्यंजनों की खबर न पहुँचे,पर उस उम्र में चूहों जैसी नासिका थी हम सभी लड़कियों की..सब सूँघ ही लेती थीं।आम के अचार और भरवा लाल मिर्च के अचार जल्दी ही सूँघ लिये जाते थे।कई बार तो सीनियर्स तक भी सुगंध चली जाती थी और  फिर तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस के लिए भी सुरक्षा नामुमकिन हो जाती थी।कभी झूठ बोलकर थोड़ा अपने लिए बचाने की कोशिश करो तो फिर तो सजा-ए-भूख..!जीभ चटपटाती रहे और आपके सामने ही डिब्बा साफ..।अपने लिए छुपाना या अकेले-अकेले इन व्यंजनों को खाना हमारे हॉस्टल-कानून में अपराध की कैटेगरी में माना जाता था,जिसकी सजा सब सफाचट करके दी जाती थी।


खाने-पीने के मामले में एक और प्लेटफॉर्म था,जहाँ लडकियों की जिह्वा आउट ऑफ कन्ट्रोल हो जाती थी और वह था चाट-समोसे का ठेला और गोल्डेन आस्क्रीम की छोटी गाड़ी।कभी मेस का खाना पसंद न आये या कुछ चटपटा खाने को मन ललचाये तो बस लड़कियों का रेला चल देता था इन दो मुकामों पर..”भैय्या, दो चाट बना दीजिये..इमली की चटनी थोड़ी ज्यादा डाल दीजिए भैय्या.. भैय्या थोड़ी दही और डालिये.. भैय्या मुझे थोड़ा और तीखा..जैसी फरमाइशों से चाट का ठेला गुलजार हो जाता था..और फिर जुबान को मिर्ची ज्यादा तीखी  लग जाये तो गोल्डेन आस्क्रीम तो है ही..कभी वैनिला,कभी स्ट्रॉबेरी, कभी चॉकोबार,कभी औरेंज…फ्लेवरों की कमी कहाँ..!कभी-कभी अगर पैसे ज्यादा बचा पाये तो सॉफ्टी भी..।बात यह भी थी कि ऐसी मन मुताबिक मामूली चीजें खाकर हम खुद को रॉयल फील करा लेते थे और फिर इस अर्थशास्त्र से हमारे इतिहास, भूगोल, राजनीतिशास्त्र आदि की पढ़ाई में ऐसा दिल लग जाता था कि क्या बतायें।कितनी बार तो क्लास में पढ़ते-पढ़ते गृहविज्ञान के डिपार्टमेंट से जो खुशबूदार हवा आती थी,वो पेट में कुछ ऐसा रसायन उत्पन्न करती थी कि कदम ऑटोमेटिक तरीके से चाट और आस्क्रीम के ठेले की तरफ बढ़ने लगते थे।रोकने की ईमानदार कोशिश भी उन्हें रोक नहीं पाती थी।ऐसे में गृहविज्ञान पढ़नेवाली लड़कियों से बड़ी ईर्ष्या होती थी..”क्या बढ़िया पढ़ाई है उनकी,पढ़ाई की पढ़ाई.. साथ में स्वादिष्ट-स्वादिष्ट खाना भी..उफ्फ..।”


आज इतने वर्षों के बाद इस उम्र के पड़ाव तक सब कुछ खाया-पिया पर, जो स्वाद मि.वर्मा की पतली सी दाल और खिचड़ी में था,वो हमें ढ़ूंढने पर भी कहीं नहीं मिला।जो स्नेह और अपनापन हमें मेस में अपनी सहेलियों के साथ खाने-पीने और हँसने में मिला वो मँहगे से मँहगे होटलों में खाने में भी कभी नहीं मिला।सस्ता,स्वास्थ्यवर्धक खाना, प्रेम और बेफिक्री भरी मुस्कान–क्या लाजवाब था हमारे हॉस्टल का खाना..सचमुच कितना फिट और हिट था हमारा वो जमाना…।

                      अर्चना अनुप्रिया


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1 Comment


vishwamohan65
May 14, 2024

अत्यंत स्वादिष्ट रचना❤️

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