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"आजादी मतलब लॉकडाउन.."

  • Writer: Archana Anupriya
    Archana Anupriya
  • Aug 16, 2023
  • 8 min read

   

क्या लगता है आपको..?आजादी सिर्फ क्रांति से मिलती है?नहीं..नहीं भाई.. यदि ऐसा सोचते हैं तो बड़े भोले हैं आप..आपने टी.वी. पर वो ऐड नहीं देखा? हीरो आराम से चुपचाप खड़ा चॉकलेट खा रहा है और कुछ न करके भी लोगों का भला कर रहा है। मतलब कि कुछ न करके भी आप आजाद हो सकते हैं, आजादी से चॉकलेट बेच सकते हैं, लोगों का भला कर सकते हैं,पैसे कमा सकते हैं…जी हाँ,बड़े काम की बात बता रहा हूँ साहब,ध्यान से समझिए…

बचपन से लेकर अब तक की मेरी जिंदगी में पिछले दिनों के लॉकडाउन के दौरान मुझे जितनी आजादी  मिली है न,उतनी तो मेरे पचपन साल की इंसानी मेहनती जिंदगी में कभी भी नहीं मिली।..अरे..!आप हँस रहे हैं मुझ पर…? हँसिये.. हँसिये.. आपको यही लग रहा है न कि टोटल लॉकडाउन में,जब सब कुछ पूरी तरह बंद था, जिंदगियाँ घरों में कैद रहने के लिए मजबूर थीं, हर तरफ पूरी तरह पाबंदी थी, सन्नाटा था, तब ऐसे में यह मूर्ख महाशय आजादी की बात कैसे कह रहे हैं..?...एक मिनट... कहीं आप ऐसा तो नहीं समझ रहे हैं कि मैं डिप्रेशन में हूँ, मानसिक रोगी हो गया हूँ और इसीलिए घर में बंद रहने को आजादी कह रहा हूँ..?तो भाईसाहब, मैं आपको यह बता दूँ कि मुझे कोई भी डिप्रेशन-विप्रेशन नहीं है, न ही किसी मानसिक रोग से ग्रसित हूँ...मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूँ,परम जुगाड़ू भारतीय नागरिक हूँ और इसीलिए लॉकडाउन-दिनों के हर दिन को स्वतंत्रता दिवस बता रहा हूँ। क्या कहा…? यह कैसे संभव है..? अरे महाराज, अभी बताता हूँ न... सुनिए.. इतने अधीर क्यों हो रहे हैं ?आँखें बंद कीजिए और मेरे साथ चले आइए मेरी दुनिया में... 


मेरे पिता स्कूल के प्रधानाध्यापक थे और समय, उसूल और संस्कारों के जबरदस्त पक्के थे। क्या मजाल कि उनके दिए समय और उनके द्वारा बनाए नियमों के खिलाफ घर या स्कूल का कोई भी प्राणी चूँ भी कर सके। कुछ बोलते नहीं थे पर आँखें ऐसी बड़ी और कड़ी करके देखते थे कि शिव जी की तीसरी आँख से भस्म होने जैसा खतरनाक डर का असर होता था। सामने वाला सिर्फ डर ही नहीं जाता था, दोबारा उनके सामने आने से भी कतराता था। चार भाई-बहनों में मैं सबसे बड़ा था,इसीलिए उनके हर नियम और उसूल का न चाहते हुए भी मैं ही ब्रांड एंबेसडर बनता था। छोटा था, तभी से सुबह 4:00 बजे उठने की आदत लगाई जा रही थी ताकि मेरे छोटों को मुझसे प्रेरणा मिले। क्या बताऊँ साहब…. सुबह-सुबह निंदायी आँखों से संस्कृत की विभक्तियाँ- 'फलम् फले फलानि, फलम् फले फलानि' पढ़ना, साईकॉलजी और निमोनिया की धोखेबाज, बेमुरव्वत स्पेलिंग रटना कितना बोरिंग होता है... निमोनिया, साइकोलॉजी की स्पेलिंग्स में 'पी' क्यों आना चाहिए या knowledge की स्पेलिंग में 'के' और 'डी' का क्या काम है, मुझे तो आज तक समझ में नहीं आया।यह फरेबी,धोखेबाज़ अँग्रेजी जोंक की तरह हमारी भारतीयता से चिपकी हुई है,पता नहीं, इससे आजादी कब मिलेगी? तो जनाब,रटना कैसा लगता था... क्या बताऊँ..? ये सब स्पेलिंग्स दरअसल स्लीपिंग पिल्स की तरह हैं... आपको नींद न आने की बीमारी हो तो इन्हें दस-दस बार बोल कर देखिए, ऐसी गहरी नींद आएगी कि सपने भी आँखों में आने से घबरायेंगे,घर के सारे घोड़े चुटकी बजाते बिक जायेंगे।कम से कम मेरे लिए तो ये सब स्लीपिंग पिल्स ही थे, जिन्हें मेरे पिताजी सुबह-सुबह नींद से जगा-जगाकर याद करवाया करते थे। सोचिए, इतना भोला था मैं? मजाल है कि आज के बच्चों को हम ऐसा करवा पाएँ?


कॉलेज गया तो जहाँ मेरे दोस्त जींस,बरमूडा और फैशनेबल टीशर्ट पहनकर, आँखों पर गॉगल्स लगाकर लड़कियों को ताड़ते थे, मुझे सिर पर तेल लगाकर बाल बनाना, पुरानी साइकिल की सवारी और रामचंद्र भगवान के बड़े भाई होने की आदर्शवादी कहानियाँ बताई जाती थीं। आप अंदाजा लगाइए कि मैं किस तरह के आतंकवादी माहौल में जवानी बिता रहा था।लड़कियों के साथ घूमना- फिरना तो दूर, उनसे बात करने,उनकी तरफ देखने से भी मेरे पसीने छूटने लगते थे। एक तरह से मेरे अंदर का रोमियो संस्कारी बंधनों में जकड़ा तिल-तिल कर मर रहा था और मेरे घर के संस्कारी सदस्यों में से किसी को इसकी फिक्र नहीं थी ।


पढ़ाई पूरी हुई तो नौकरी पर लग गया। मुझे नहीं पता था कि बाबू बनने के लिए गले में फाँसी का फंदा यानी 'टाई' लगानी पड़ती है। कुछ लोग इसे "कंठलगोट" कहते हैं पर मैं तो इसे "कंठघोंटू" नाम दूँगा। सुबह नौ-दस बजे से लेकर शाम के सात,आठ, नौ,दस बजे तक… जब तक आप ऑफिस में हैं,गर्दन में लटकाए रखिए। कसम से, इस कंठघोंटू की वजह से बेचारी मेरी कमीज़ भी चैन की साँस नहीं ले पाती थी। दिन भर गर्दन तक की बटन लगाए, अकड़ के रहना...उफ्फ्फ.. उस पर से सूट भी पहनिए ताकि कंपनी की इज्जत बने।अरे भाई, कंपनी को पैसे कमाने से मतलब है कि इज्जत बनाने से... ?कर्मचारियों को आरामदायक कपड़े भी पहनने नहीं देते।कहाँ भारतीय हवादार धोती-कुर्ता,जो दिनभर इन्सानी शरीर के हर अंग को ऑक्सीजन देते हैं और कहाँ यह गला और शरीर को बाँधकर रखनेवाला सूट-टाई,आप गर्दन भी खुलकर नहीं घुमा सकते....सचमुच,परिधान से ही पता चलता है कि आजादी का सही मतलब भारतीयों को ही पता है। विश्वगुरु तो भारत को ही होना चाहिए।


पढ़ाई और नौकरी के बाद शादी और बच्चे...पत्नी को घुमाना, उन्हें लेकर शॉपिंग पर जाना, पत्नी को खुश रखने के लिए ससुराल वालों से "जी हाँ,जी हाँ" करते रहना, बच्चों को स्कूल पहुँचाना-लाना, उनकी फरमाइशें पूरी करना, छुट्टियों में आउटिंग पर ले जाना, रिश्तेदारों, दोस्तों से संबंध निभाना,कुछ अपने मन का कर दो तो फिर पत्नी के ताने सुनना, रूठने पर मनाना….ओहहह... कितना परेशान और उसूलों से बँधा रहता है मेरे जैसा आदर्श पति,आप समझ सकते हैं।


"मैं जिंदगी का साथ निभाता चला" जा रहा था और खुद को पूरी तरह से पत्नीशाही परंपरा के हवाले कर चुका था कि ईद के शुभ  चाँद की तरह आजादी का त्यौहार लेकर आया यह कोरोनाकाल का लॉकडाउन।जिस दिन से लॉकडाउन शुरू हुआ था, मेरे तो दिन ही फिर गए थे।पहले सिर्फ रविवार को ऑफिस से फुर्सत मिलती थी...इस लॉकडाउन में तो बस फुरसत ही फुरसत मिलने लगी।.. अपनी मरजी से सोता था, अपनी मरजी से उठता था...जब तक चाहे टीवी देखो... जब तक चाहे दोस्तों से चैट करो..मजाल था कि कोई काम करा ले।पहले जब परिस्थितियाँ सामान्य थीं, तब घर में भी दहशत का माहौल बना रहता था-- ड्रॉइंग-रूम में जरा सोफे पर पैर फैला कर लेटो,तो पत्नी मैनर्स की दुहाई देने लग जाती थी,अड़ोस- पड़ोस से कोई न कोई हमेशा आता-जाता रहता था.. लिहाजा छुट्टियों में भी बन-ठनकर रहना पड़ता था। इस चक्कर में खुलकर जीने का मजा कहाँ आता था साहब? इस लॉकडाउन ने पहली बार जिंदगी में खुलकर जीना सिखाया।मौज ही मौज थी इस लॉकडाउन में। मजाल था कि बनियान और बरमूडे के अलावा किसी और कपड़े की तरफ आँख उठाकर भी देख लूँ। अलमारी खोलता था  तो उछल-उछल कर कपड़े मेरे चरणों पर गिर पड़ते थे ।चरणों में लोट-लोटकर कपड़े सब गुहार लगाते थे-"मुझे पहनो साहब, मुझे पहनो साहब... बाहर की दुनिया देखे जमाना हो गया है...कब तक हमें यूँ जेल में रखोगे..?कुछ तो रहम करो हुजूर…" और मैं भेड़-बकरियों की तरह उन्हें उठाकर एक ही स्थान पर ठूँस देता था-.." चल हट, बड़े आए बाहर घूमने वाले...इतने दिनों में पहली बार तो मेरे हाथ-पैर खुली हवा में साँस ले रहे हैं... तेरे कारण उनका ऑक्सीजन छीन लूँ क्या…?" मेरी शह पाकर बनियान भी उन्हें मुँह चिढ़ा देता था और इससे पहले कि उनके बीच दंगा फैल जाता,मैं अलमारी ही बंद कर देता था-- "भला सोचो, आदमी घर में बंद है और इन कपड़ों को मेरी देह पर चढ़कर सैर करनी है…? कितना मतलबी जमाना आ गया है।" यहाँ तक कि कभी अगर ऑनलाइन मीटिंग करने की नौबत भी आती थी, तो मैं बनियान के ऊपर ही सूट पहनकर बच्चों के स्कूल की "बो" गरदन में डाल देता था और स्टाईल से बाल-वाल बनाकर बैठ जाता था।गर्दन तक ही तो चेहरा दिखना है न...सूट के नीचे मैं कच्छे में हूँ या बरमूडा पहने हूँ,उन्हें कैसे पता चल पाएगा भला..? काश, आदमी ऑफिस भी बनियान में जा पाता...। ऑफिस जाते समय कितने दुनिया भर के चोंचले करने पड़ते थे-- बाल कटवाओ, मूँछें ट्रिम करो,दाढ़ी बनाओ...उफ्फ्फ... मुझसे तो फाइलों ने कभी शिकायत नहीं की कि यह सब करके आओ तभी हाथ में आएँगे.. ये सारे फिजूल के नखरे या तो बॉस के होते हैं या बीवी के...बेचारा पुरुष,अपनी मर्दानी नेमतों पर दिल खोलकर रश्क भी नहीं कर पाता। इस लॉकडाउन ने पुरुषों की यह जन्मसिद्ध आजादी भी मुझे दे दी थी।मजाल था कि शेविंग ब्लेड अपना काम कर पायें,आखिर लॉकडाउन था,तो उन्हें भी तो लॉक रखना था..बेचारे दाढ़ी-मूँछें कत्ल नहीं कर पा रहे थे तो लॉक होकर डॉउन ही थे।आजाद तो मैं था। इसके अलावा,लॉकडाउन ने बीवी को बाईयों की तरह ऐसे उलझा कर रखा था कि उन्हें तो मेरी तरफ देखने तक की फुर्सत नहीं थी... और मैं..?..अहा...क्या बताऊँ..! बस बिस्तर पर पड़े-पड़े नेटफ्लिक्स जैसे ओ टी टी  पर सिनेमा देखते हुए अपनी आजादी मना रहा था।हाँ,बीच में एक ऐसा समय आया था, जब मेरी आजादी खतरे में आने लगी थी। पत्नी ने घर में सबका काम विभाजन कर दिया था और बाईयों को आने से रोक दिया था। मुझे किचन के काम में, बच्चों की पढ़ाई में,सामान उठाने-करने में लगा दिया था। अब बताइए,भोले भगवान जैसा मर्द---कमाये भी,पकाये भी, पढ़ाये भी.. और उस पर से यह इल्जाम भी ढोये  कि समाज की आधी आबादी को हम बढ़ने का मौका नहीं देते। अरे भाई, सारे काम हम ही से करवाएगी तो नारी आगे कैसे बढ़ेगी..?.. और फिर आरोप यह लगाया जाएगा कि मर्द औरतों को कुछ करने नहीं देते ।मैंने तो हुजूर,यह ठान रखा है कि औरतों को काम करने से कभी नहीं रोकना है,बल्कि मौके देते रहना है..। 

हर भले काम की शुरुआत घर से ही होनी चाहिए...सो मैंने दो-चार दिनों में ही पत्नी जी से कह दिया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है.. अंदर से कैसा-कैसा तो लग रहा है...पत्नी का शक सीधा बेचारे कोरोना पर जा अटका.. बस, फिर क्या था..? दिन ऐसे फिरे कि बस नवाबों सा राज हो गया... आराम से बैठे-बैठे इतनी सेवा मिली कि पांच सितारा होटल भी शरमा जाए…

(व्यवहारिक चेतावनी: अपने घर का माहौल और पत्नी के भोलेपन का प्रतिशत भाँप कर ही यह कदम उठाएँ,वरना खतरनाक हो सकता है..सावधान रहें,सतर्क रहें) 


इस लॉकडाउन ने इम्यूनिटी बढ़ाने का एक ऐसा विचार घरों में घुसेड़ा है कि पूछिए मत...। बंद घरों में ऐसा गरम-गरम और रूढ़िवादी भोजन मिल रहा था कि पिज़्ज़ा और बर्गर डिप्रेस्ड होकर सुसाइड करने पर आ गए थे।मैं तो लगभग भूल ही गया था कि गर्म अरहर की दाल,भाप निकलता चावल, घर में बनी सोंधी हरी-हरी सब्जियाँ और एक चम्मच शुद्ध घी- कितना स्वर्गिक आनंद देते हैं। सुबह जल्दी निकलने और ऑफिस-कैंटीन में बैठकर टिफिन के ठंडे खाने में वह मजा क्या आता भला..?तो मौका देखकर पिज़्ज़ा-बर्गर ने अंग्रेजों की तरह हमें गुलाम बना रखा था।तो भाई, भारतीय भोजन ने भी इस लॉकडाउन में ही आजादी पाई और अपना वर्चस्व बनाया।अँग्रेजों की तरह पिज्जा-बर्गर भी घरों से निकाले गये।इसका क्रेडिट भी लॉकडाउन को ही मिलना चाहिए।भारतीय व्यंजनों को इसी लॉकडाउन ने पुनः स्थापित किया है।


हाँ,आज़ादी की कीमत मुझे सैलरी कटने से चुकानी जरूर पड़ी थी,परन्तु भाई साहब, भरपूर आजादी से जीने के लिए थोड़ा तो कुछ त्यागना ही पड़ता है।मजे की बात तो यह थी कि लॉकडाउन में कम वेतन में भी पैसे बच रहे थे। अब देखिए न... पत्नी जी की शॉपिंग बंद थी, बच्चों की अनर्गल फरमाइशें बंद थीं, बाईयों को वेतन जरूर देनी पड़ रही थी पर बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ काम करने लगे थे तो व्यस्त रहते थे.. इसीलिए, चॉकलेट,आइसक्रीम जैसी फालतू चीजें नहीं मँगा रहे थे...जिम का खर्चा बच रहा था... स्कूल कॉलेज बंद थे, कहीं निकलना नहीं था तो पेट्रोल, डीजल, टैक्सी भाड़ा- हर चीज में बचत हो रही थी। यह लॉकडाउन तो छप्पर फाड़ कर सुख बरसा रहा था...तकलीफें तो कोरोना दे रहा था जी, लॉकडाउन नहीं... वह बेचारा तो खुद ही चाइना के पॉलिटिक्स का शिकार हो गया था..। न चाहते हुए भी मजदूर वर्ग की गालियाँ सुन रहा था बेचारा-- सामाजिक वाद-विवाद में हर पल कोसा जा रहा था..लेकिन, बेचारे की नीयत तो अच्छी ही थी न...कितनों को आजादी का सुख दे रहा था...इंसान तो इंसान, जानवर भी खुश थे, आजाद थे।….पेड़ पौधे तो इतने खुश हो रहे थे कि झूम-झूम कर फलफूल रहे थे। नदियाँ,पर्यावरण,जंगल–सभी को अतिक्रमण से आजादी थी, सब खुश थे।यहाँ तक कि भगवान भी अपने दरों को बंद करके इंसानों के बेमतलब के रोने-धोने से आजाद वैकुण्ठ में छुट्टी मनाने जा पाये थे।मेरे लिए तो साहब,आजादी का मतलब ही लॉक डाउन हो गया है।मुझे तो लगता है,पतियों के लिए संविधान में खास लॉकडाउन की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात पिसता पति कुछ पल तो आजादी की साँस ले सके...मैं तो कहता हूँ, पत्नियाँ आगे आयें खूब काम करें और हमें जिम्मेदारियों से आजाद कर दें...ऐसी आजादी भला हम पुरुषों को क्यों बुरी लगेगी..? हम क्यों नारी वर्ग को काम करने से रोकने लगे भला..? जब वे स्वयं काम करना चाहती हैं, तो करें,और हमें आराम करने की आजादी दें..इस लॉकडाउन को तो राष्ट्रीय त्योहार बना देना चाहिए ताकि इंसान,जानवर,नदी,जंगल–सब खुलकर आजादी के पलों का आनंद लें।फिर, न तो बिमारियों की चिखचिख होगी,न ही पर्यावरण का रोना-धोना…इंसान भी खुश और कुदरत तथा भगवान भी खुश.. "जुग जुग जियो आजादी देने वाले मेरे लॉकडाउन…"।

                   ©

अर्चना अनुप्रिया।

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