"ढाई अक्षर प्रेम के"
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"ढाई अक्षर प्रेम के"

  • Writer: Archana Anupriya
    Archana Anupriya
  • Aug 18
  • 6 min read

“ढाई अक्षर प्रेम के”


अबकी श्रावण मास ने आते ही प्रेम के गुलाब बरसाये…पंखुड़ियां अभी भी मेरी रूह से चिपकी महक रही हैं।भोले बाबा ने इस श्रावण हमें अपने आराध्य के दर्शन के लिए भेजा..शायद यह देखने के लिए कि सावन में प्रेम कैसे बरसता है,कैसे धरा की तपन आसमान को विवश कर देती है शीतलता लुटाने के लिए और क्या अहसास उतरते हैं मन मस्तिष्क के आंगन में कि समस्त रूह हरी भरी हो जाती है,आंखें बस हर तरफ रंगीनियां देखने लगती हैं और मानव मन अंदर तक डूब जाता है प्रेम की चाशनी में….

इधर विश्व की कुछ क्रूर और अमानवीय हलचलों ने प्रेम की परिभाषा बदलनी चाही थी, स्त्री के अंदर की कोमलता क्रूरता में परिवर्तित होती दिख रही थी।विवाह के पवित्र बंधन प्रेम को खिलौना बनाकर जीवनसंहारक बन रहे थे।ऐसे में,मन क्षुब्ध सा हो रहा था,प्रेम के नाम से जैसे भरोसा ही उठने सा लगा था कि सावन का महीना एक प्रेम दूत की तरह आ पहुंचा और मेरे आराध्य ने मुझे अपने आराध्य के पास प्रेम पर विश्वास की पुनर्स्थापना के लिए भेज दिया। एकदम से प्रोग्राम बना और हम वृंदावन की गलियों में कान्हा के प्रेम रस से सराबोर होने जा पहुंचे। निधिवन की सोलह हजार वृंदायें जो हर रात गोपियां बनकर कृष्ण के साथ रास रचाती हैं द्वापर युग से वहीं जड़ें जमाये कृष्ण के प्रेम के प्रति अटूट विश्वास दर्शाती खड़ी हैं।दिन में वे सभी गोपियां तुलसी के पौधों में परिवर्तित हो जाती हैं। मैंने निधिवन के विषय में सुना तो था परंतु जब आंखों से देखा तो आंखें भर आयीं।हवा में आस्था तैर रही थी और अंतर्मन प्रेम की उस पराकाष्ठा को महसूस कर पुलकित हो रहा था।क्या सचमुच अब तक हर रात कृष्ण यहां आकर गोपियों को उनके प्रेम का प्रशाद चखाते होंगे?क्या प्रेम ईश्वर को इस तरह बांध लेता है? मन भर आया मेरा। फिर बताया गया कि उस प्रांगण में स्थित राधारानी के मंदिर में हर रात भगवान के शयन के लिए बिस्तर लगता है,जल,पान, दातून वगैरह रखे जाते हैं और मंदिर को सात तालों में बंद कर पुजारी चले जाते हैं।रात आठ बजे के बाद वहां कोई नहीं रहता.. यहां तक कि आसपास बने घरों की खिड़कियां भी बंद कर दी जाती हैं, कहीं कोई नहीं होता और फिर जब सुबह दरवाजा खुलता है तो चादर पर सिलवटें पड़ी होती हैं,जैसे अभी-अभी कोई सोकर उठा हो, दातून और पान चबाये हुए होते हैं जैसे कि कोई इस्तेमाल करके गया हो।सुनकर मन अवाक था।एकदम से अविश्वसनीय,अकल्पनीय.. क्या सच में ऐसा होता होगा?क्या कृष्ण सच में आते हैं?कैसे दिखते होंगे,क्या नजारा रहता होगा।एक बार तो मन मचल उठा कि काश यह सब देख पाती लेकिन अगले ही पल पता चला कि इस दैवीय अनोखी घटना को खुली आंखों से देखना असंभव है।जिस किसी ने भी कोशिश की,वह या तो देखने लायक नहीं रहा या फिर बताने लायक नहीं रहा।इस कोशिश में कुछ दिमागी संतुलन खो बैठे और मानसिक तौर पर पागल हो गये।मन में विचार उठा कि ईश्वर इतने रहस्य से क्यों भरे रहते हैं?अगर भगवान को नाचते गाते देख ही लेगा इंसान तो क्या हो जायेगा? लेकिन अब उनकी मर्जी नहीं है तो क्या करें.. लेकिन मर्जी क्यों नहीं है?इसका जवाब तो क्या ही मिलेगा।खैर, प्रेम का अजब अनोखा अहसास लिए मैं बिहारी जी के मंदिर जा पहुंची।आरती का समय था,श्रृंगार से सजे कान्हा जयकारे के उद्घघोष के बीच हाथों में बंसी लिए बड़े प्यार से मुस्कुरा रहे थे..जैसे कह रहे हों,बुला लिया न तुम्हें यहां ..कब से चाह रही थी आना पर आज-कल कर रही थी..भरोसा रखो मेरे प्रेम पर, मैं उसी से बंधा खड़ा हूं तुम सबके बीच और  तुम्हें भी बांधकर रखूंगा अपने प्रेम से। मैं रो पड़ी।न जाने क्यों लग रहा था कि वो साक्षात् खड़े हैं मेरे समक्ष।एक हल्की सी मुस्कुराहट थी उनके चेहरे पर और बंसी की तान उस जयकारे के बीच कहीं दूर से आती सुनाई देने लग गयी थी। जबरदस्त भीड़ थी और उस भीड़ के बीच उनकी नजरें मुझपर ही जमी थी।थोड़ी देर के बाद जब मैं बाहर आयी तो मन वहीं कहीं छूट गया था।अब कान्हा का दर्शन हो और प्रेम का मंदिर न दिखे ऐसा क्या हो सकता है भला..? गाड़ी चल पड़ी उनके प्रेम के मंदिर को देखने। लेकिन,कहते हैं न ईश्वर आपको वो नहीं दिखाता जो आप देखना चाहते हैं, ईश्वर आपको वो दिखाता है जो वह खुद आपको दिखाना चाहता है।हम जा तो रहे थे प्रेम मंदिर देखने पर भीड़ की वजह से दूसरा रास्ता लेने के चक्कर में हम जा पहुंचे वृंदावन का प्रख्यात इस्कॉन मंदिर। भीड़ से भरे शहर में श्रीप्रभुपाद जी द्वारा स्थापित पहला इस्कॉन मंदिर, जिसने समस्त विश्व में श्रीकृष्ण के प्रेम और भक्ति को जन-जन तक पहुंचाया।भारी भीड़ थी लेकिन बड़ी ही सरलता से कान्हा के दर्शन हुए।हंसते, मुरली बजाते कान्हा बड़ी ही चपल,चंचल मुस्कान के साथ मेरे सामने आये।फिर,हम मंदिर की दूसरी ओर बने शीतल,शांत और भक्ति से भरे तप-स्थान पर गये।वहां प्रभुपाद जी की याद में उनकी तपस्या-स्थली को बहुत ही व्यवस्थित रूप से संजोकर रखा गया है।उनकी जीवन शैली,उनके लेख,उनकी तप-स्थली..उनके उपयोग आने वाली सभी वस्तुओं को बहुत ही सुन्दर तरीके से रखा और दर्शाया गया है।अब कान्हा ने वहां बुलाया था तो बिना जलपान के तो कहां जाने देने वाले थे। उनकी रसोई और स्वादिष्ट जलपान का रसास्वादन कर हम प्रेम मंदिर जा पहुंचे। प्रेम मंदिर सचमुच प्रेम और भक्ति से भरा था। लाखों दर्शकों की आवाजाही, कृष्ण के सुंदर कृत्यों को मूर्तरूप में दर्शाता विशाल सा प्रांगण और रंग बिरंगी आकर्षक लाईटों से सजा,भक्तों को प्रेम के मायने सिखाता,प्रेम लुटाता अत्यंत ही खूबसूरत मंदिर। आंखें जैसे अटक सी गयीं वहां।अपना अस्तित्व ही भुला बैठे हम। चारों तरफ बस कृष्ण ही कृष्ण नजर आ रहे थे। कहीं बाल क्रीड़ायें करते, कहीं राधा संग बंसी बजाते,कहीं गायें चराते तो कहीं कालिया दमन करते। मंदिर था प्रेम का तो प्रेम के हर रंग मंदिर को बारी-बारी से नहा रहे थे।अंदर जाने पर तो नजारा और भी प्रेममय करने वाला था। एक तरफ कान्हा के विभिन्न प्रेम-रूप का जीवंत स्वरूप तो दूसरी ओर  प्रेम की मर्यादा एवं प्रेम का एक अन्य रूप दर्शाते राम,सीता और हनुमान जी। चारों तरफ़ प्रेममय होकर नाचते मयूर नजर आये। मंदिर से बाहर आते-आते तक मन प्रेम से सराबोर हो चुका था। सांसारिक, व्यवहारिक सभी कड़वाहट जो पिछले दिनों सुनी,पढ़ी और टीवी पर देखी थी,कोसों दूर जा चुकी थी या यूं कहें कि उनका अस्तित्व ही मिट चुका था। कृष्ण ने प्रेम की पराकाष्ठा पूरी तरह से समझा दी थी और दिखा दी थी।मन एक बार फिर से भक्ति, विश्वास और आस्था से लबरेज था।


कृष्ण यहीं नहीं रुके। उन्होंने प्रेम की एक और कहानी और निशानी देखने के लिए हमें आगरे का ताजमहल देखने भेज दिया।संसार का अजूबा,अनूठा और श्वेत,सादा संगमरमरी लिबास ओढ़े प्रेम का अनोखा रंग,जो यह बताता है कि प्रेम जीवन और मृत्यु से परे है,शाश्वत है।जब प्रेम निश्छल हो,अटूट हो और अंतर्मन से जुड़ा हो तब वह जीवन की सरहद से बंधा नहीं होता..तब फर्क नहीं पड़ता कि प्रेम मंदिर में स्थापित है कि कब्र में दफ़न है।कहने को तो ताजमहल एक कब्रगाह ही है क्योंकि यहां बादशाह की प्रेयसी और पत्नी,मुमताज और शाहजहां की कब्रों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है परन्तु,प्रेम की एक ऐसी डोर से इमारत बंधी हुई है कि सदियों बाद आज भी विश्व के कोने-कोने से लोग आकर्षित होकर प्रेम से बंधे यहां आते रहते हैं। दरअसल,ताजमहल मुमताज और बादशाह शाहजहां का अंतिम विश्राम स्थल है। मुमताज,जिनका असली नाम अर्जुमंद बानो बेगम था,१७जून१६३१ को बुरहानपुर में प्रसवोत्तर रक्तस्राव से परलोकवासी हुईं थीं। फिर उनकी कब्र यहां स्थापित की गयी,जिसे बेटे द्वारा कैद किये जाने के बावजूद आगरे के किले से बादशाह हर पल निहारा करते थे।बाद में उन्हें भी मरणोपरांत उनकी इच्छानुसार वहीं बगल में दफन किया गया था।शायद यह प्रेम की शक्ति ही है,जिसने एक कब्रगाह को संसार का अनूठा और सबसे खूबसूरत दर्शनीय स्थल बना दिया है।जाने कहां कहां से लोग आज भी हर दिन हजारों,लाखों की संख्या में आते हैं इसे देखने।ताजमहल के हर कोने से प्रेम छलकता है चाहे आप सुबह देखें या रात में।चांदनी रात में तो यह सफेद इमारत जैसे जीवंत होकर यमुना की कल-कल स्वर में बातें करती है।इमारत के बगल में बहती यमुना की धारा संगमरमरी इमारत को और भी शीतल कर देती है मानो कहना चाहती हो कि प्रेम हर दहकती,कटुता भरी नकारात्मक लहर को शांत और शीतल करने के लिए पर्याप्त है। इसीलिए दिन हो या रात,धूप हो या छांव,बुरा हो या अच्छा बस प्रेम करें,प्रेम देखें,प्रेम ही महसूस करें।इससे बड़ा तो कुछ है भी नहीं। ईश्वर और बादशाह को जब इस प्रेम ने बांधकर धरती पर एक मिसाल रच दी तो आम इंसान की तो बात ही क्या करें।प्रेम के इस महीने,सावन में मेरे शिवजी ने प्रेम की ऐसी ताकत दिखा दी कि बिना कुछ कहे-सुने मन एक बार फिर से दुनियावी सारे कांटे हटाकर प्रेम की डाल पर जा बैठा। सचमुच, यदि स्वार्थ और नफ़रत को हराना है तो प्रेम और उसपर अटूट विश्वास ही एकमात्र उपाय है। इसीलिए हालात हमें कितना भी मशीनी और संवेदना से हीन बनाने की कोशिश करें,प्रेम पर अपनी आस्था कभी नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि यह ढाई अक्षर केवल एक दूसरे को ही नहीं संभालता,सारी मानवता को संभाले रखने के लिए पर्याप्त है। सचमुच इस सावन में भोलेनाथ ने बिना कुछ कहे ही मुक्ति का मार्ग दिखा दिया है।प्रेम ही प्रकृति है,प्रेम ही आस्था है,प्रेम ही ईश्वर है और प्रेम ही मुक्ति है। इसीलिए,इस ढाई अक्षर को अपनायें और सदा के लिए प्रेम रंग में रंग कर मगन हो जायें।

                      ©अर्चना अनुप्रिया।

                     

                    





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