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"कर्मण्येवाधिकारस्ते.."

  • Writer: Archana Anupriya
    Archana Anupriya
  • Jan 19, 2023
  • 4 min read

Updated: Jan 20, 2023


"कर्मण्यवाधिकारस्ते.."


"कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान"- गीता का यह ज्ञान जिंदगी का सार है। मतलब यह कि आप बस अपना कार्य करें, फल की इच्छा न करें...या यूँ कहें कि फल आपके हाथ में है ही नहीं...वो हमारे कर्म का प्रतिफल है..जैसा कर्म होगा वैसा ही फल मिलेगा और अवश्य मिलेगा। हम आम तौर पर यह करने की सोचते भी हैं और करने की कोशिश भी करते हैं लेकिन, कुछ मामलों में हमारे अंदर प्रश्न खड़े हो जाते हैं।यह प्रश्न अक्सर खड़ा होता है कि  जब सरहद पर सिपाही गोलियां चलाता है और लोग मरते हैं तो सिपाही की वाहवाही होती है, तमगे दिए जाते हैं,इस कार्य के आगे लोगों के सिर झुक जाते हैं लेकिन, यदि वही सिपाही अपने घर या अपने मोहल्ले के किसी व्यक्ति की हत्या कर देता है तो उसे जेल होती है,सजा मिलती है शायद उम्रकैद या फांसी भी। कर्म तो दोनों जगह एक सा किया है उसने फिर,दो तरह के फल क्यों मिले..? सोचने वाली बात तो है।अब इस प्रश्न का जवाब आप यह देंगे कि सरहद पर वह देश की खातिर लड़ा जबकि मोहल्ले में अपने स्वार्थ के लिए। जो देश के लिए लड़ेगा, मारेगा, मरेगा वह तो आदरणीय होगा ही...लेकिन, जब वह अपने स्वार्थ के लिए या अपने व्यक्तिगत उद्देश्य के लिए लड़ेगा तब उसके लिए कैसी श्रद्धा? कैसा प्यार? सही सोच है हम सबकी..नकारात्मकता की श्रेणी में आने वाले कर्म कभी वंदनीय और प्रशंसनीय नहीं हो सकते।। परंतु, यहाँ पर एक दूसरा प्रश्न यह खड़ा होता है कि महाभारत की लड़ाई तो पांडवों ने अपना अधिकार पाने के लिए लड़ी थी,उसमें उनका स्वार्थ निहित था फिर,वह युद्ध धर्म युद्ध कैसे हुआ..? इतने लोग मृत्यु को प्राप्त हुए, अपने ही भाइयों,बहनों, बंधुओं को मारा गया.. इसमें धर्म कैसे दिखाई देता है? यदि पांडव अपना राज्य छोड़ ही देते तो क्या हो जाता?वे तो इतने गुणवान बलशाली थे, कहीं भी दूसरा इंद्रप्रस्थ बना लेते, फिर,इतनी बड़ी लड़ाई और खून खराबा क्यों??वह भी,अपनों के विरूद्ध? और, भगवान कृष्ण भी उन्हीं के साथ हैं? देखा जाए तो वही तो अर्जुन को कर्म की गीता समझा रहे हैं। ऐसे में,दुर्योधन का मारना अधर्म  और अर्जुन का मारना धर्म कैसे हो गया? कर्म तो दोनों तरफ एक से हैं फिर एक के साथ सेना और दूसरे के साथ भगवान स्वयं क्यों हैं? यह प्रश्न तो स्वाभाविक भी है और उचित भी है.. लेकिन यहीं पर असली खेल समझने की जरूरत है। कृष्ण ने इसे धर्म युद्ध कहा और पांडवों का साथ इसलिए दिया क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में आम लोगों के अधिकारों और मर्यादाओं को सुरक्षा देना अवश्यंभावी हो गया था। दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों का अत्याचार बहुत ज्यादा बढ़ रहा था।आम लोगों के साथ दुर्व्यवहार तो हो ही रहा था,पाँडवों के साथ भी कदम-कदम पर अन्याय किया जा रहा था और कोई कुछ नहीं कर पा रहा था। लाक्षागृह में आग लगाना,उन्हें मारने की साजिश,राजगद्दी की जगह बंटवारे में खांडव वन और सबसे बढ़कर, भरी सभा में सबके सामने द्रौपदी के साथ  चीरहरण जैसा अधर्म और किसी का कुछ न कहना, कुछ न कर पाना-- भला अन्याय और अत्याचार भरा कार्य इससे ज्यादा और क्या हो सकता था ? जब इतने बड़े और शक्तिशाली राज्य की रानी होकर उसकी सुरक्षा   निश्चित नहीं रह पायी और राजकुमार होकर पांडवों को उनका अधिकार नहीं मिल पा रहा था तो आम स्त्रियों की सुरक्षा और आम लोगों के अधिकारों की क्या दशा होती भला.. ?..आम लोगों के अधिकारों पर प्रश्न चिन्ह लगना तो स्वाभाविक ही था। कृष्ण ने बहुत कोशिश की थी कि युद्ध टल जाए और अहंकार छोड़कर कौरव अत्याचार को सदाचार में बदल दें परंतु, अत्याचार- अनाचार जब-जब अपनी सीमा लाँघने लगेंगे तब एकमात्र विकल्प की तरह युद्ध तो अवश्यंभावी होगा ही... और इसीलिए कृष्ण ने इस युद्ध को धर्म-युद्ध का नाम दिया। यहाँ पर यह समझने की जरूरत है कि मारना महत्वपूर्ण नहीं है.. किसने मारा या किसे मारा जा रहा है,यह महत्व की बात नहीं है,महत्व इस बात की है कि क्यों मारा जा रहा है..उसके पीछे का उद्देश्य क्या है..? जब हम धर्म की बात करते हैं तो हमें यह पता होना चाहिए कि मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्च जाना धर्म नहीं है... धर्म है, स्वार्थहीन होकर लोक कल्याण के लिए कर्म करना। इसलिए कृष्ण ने इसे धर्म-युद्ध कहा और पांडवों का साथ दिया। समझना यह है कि आपके मस्तिष्क में जो उद्देश्य चल रहा है और जिसके लिए आप कर्म कर रहे हैं वह स्वार्थ है या परमार्थ? यहां पर सारा खेल सोच और आपकी नीयत का है…हाथ-पैर क्या कर रहे हैं यह आपकी सोच निर्धारित करेगी। यदि सोच स्वार्थी हो और आप कर्म परमार्थ दिखाने के लिए भी कर रहे हैं तो वह सच्चा कर्म नहीं है और उसका फल भी वैसा नहीं मिलेगा, जैसा आप सोच रहे हैं। परंतु, यदि सोच सच्ची और लोककल्याणकारी है और आपके कर्म भी उसी के अनुसार हैं तो फिर,जो फल मिलेगा,वो हमेशा मीठा ही होगा। सच कहें तो,मस्तिष्क में चल रही सोच ही आपका असली 'कर्म' है।हाथ-पैर द्वारा किया गया कर्म तो आपकी सोच का परिणाम मात्र है। जब आपकी सोच, नीयत और कर्म– तीनों एक समान हो जाते हैं और निरे स्वार्थ से परे सामाजिक या सकारात्मक दिशा लिए हुए होते हैं, तब जो फल मिलता है,वह वास्तविक रुप से मीठा ही होता है।रही बात महाभारत के युद्ध की,तो भगवान ने धर्म की स्थापना अर्थात सर्व कल्याण के लिए अर्जुन को प्रेरित किया था और हथियार उठाने के लिए कहा था। जब बात न्याय,सर्व कल्याण और उचित सोच का साथ देने की हो तब रास्ते में अपने भी आयें तो विचलित नहीं होना चाहिए। बस, सही और उचित कर्म करो,परिणाम अच्छा ही मिलेगा। अब प्रश्न है कि सही और गलत की पहचान कैसे करें? तो, इसके लिए परिस्थिति और काल को समझना आवश्यक है।किसी भी विशेष परिस्थिति में,जो समाज और लोक कल्याण के लिए जरूरी है,वह अधिक महत्वपूर्ण और न्यायोचित है।कर्म की परिभाषा ही यही है कि आप की सोच,नीयत और दिशा सकारात्मक हो, सृष्टि के संतुलन के लिए आवश्यक हो और जो सोच में हो, वही कार्य में भी हो। उद्देश्य के सोचने और करने में जब सकारात्मक रूप से एकरूपता आ जाए, तभी सच्चा कर्म है और ऐसे ही कर्म सही मायने में सकारात्मक रूप से फल देते हैं।

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© अर्चना अनुप्रिया

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