डायरी मन की--"हादसा? लापरवाही?साजिश?बदला?या संतुलन?"
- Archana Anupriya

- Jun 14
- 4 min read
Updated: Jun 26
हादसा? लापरवाही?साजिश? बदला?या संतुलन?
आये दिन जो कुछ भी अच्छा या बुरा घटित होता है उसके पीछे मनुष्यों के कर्म उत्तरदायी हैं या ईश्वर की मर्जी..क्या स्क्रिप्ट पहले से भगवान ने लिख रखी है या मनुष्यों के कर्म निश्चित करते हैं परिणाम..? समझ में ही नहीं आता ईश्वर के सृष्टि चलाने का तरीका..जितना जानने के लिए आध्यात्म के रास्ते से गुजरें, रहस्य उतना ही और भी गहराता जाता है।जो सबकुछ अच्छा करते हैं,या सबका अच्छा चाहते हैं, उनकी परीक्षा और भी कड़ी होने लगती है।जो ग़लत राह पर चलते दिखते हैं या ग़लत की श्रेणी में माने जाते हैं,वे उतने ही बेफिक्री और मस्ती के साथ जीवन जीते दिखाई देने लगते हैं। वो लोग,जो अपनी खुशी में जीकर संतुष्ट हैं और भगवान को दिन-रात अपना संबल मानते हैं,वो या तो ऐसे ही हादसों का शिकार हो जाते हैं या फिर टूटकर बिखर जाया करते हैं।वे लोग यह मानकर संतुष्ट भी हो जाते हैं कि उनका कष्ट पिछले जन्म का कोई प्रारब्ध है या फिर कोई पीढ़ी दर पीढ़ी से चला आ रहा कर्ज..। ईश्वर के भक्त परेशान होते रहते हैं लेकिन उनकी तरफ से कोई जवाब या कारण नहीं मिलता।कितनी ही दफा ऐसा लगने लगता है कि भगवान सचमुच हैं भी या नहीं?भरोसा जैसे समाप्त सा होने लगता है..परन्तु तभी.. कुछ ऐसे अविश्वसनीय,अकल्पनीय चमत्कार हो जाते हैं कि साक्षात ईश्वर के समीप होने का अहसास होने लगता है और विश्वास लौटकर ह्रदय में और भी दृढ़ता से घर कर लेता है।
हादसे,दुर्घटनायें, बिमारियां, परेशानियां क्यों आती हैं,कैसे आती हैं ये तो पता नहीं लेकिन मानव यह मानकर चलता है कि सब ईश्वर की मर्जी से ही हो रहा है।क्या सचमुच ऐसा है या फिर कोई और बात है,जिसके रहस्य से पर्दा अभी तक उठा नहीं है। क्योंकि हम यदि ईश्वर की संतान हैं तो वो परमपिता अपने बच्चों की खुशियों को गहन दुःखों में परिवर्तित कैसे करेंगे या क्यों करना चाहेंगे?सबक सिखाने या ह्रदय परिवर्तन का कोई दूसरा सरल रास्ता भी तो अपनाया जा सकता है उनके द्वारा।वो ईश्वर हैं,कुछ भी बड़ी आसानी से कर सकते हैं।तो फिर क्या कारण हो सकता है कि पलभर में वह खुशी को रुदन में बदल देते हैं?
एक कारण जो मानव मन की समझ में आता है,वो है संतुलन का सिद्धान्त। संपूर्ण ब्रह्मांड एक इसी सैद्धांतिक धुरी पर सुचारू रूप से चल रहा है।जब भी संतुलन कहीं से भी बिगड़ा तो प्रकृति के सारे अवयव उसे तत्काल संतुलित करने के लिए लग जाते हैं।इस संतुलन का माध्यम है,'कर्म का सिद्धान्त',जिसे अर्जुन को गीता का ज्ञान देकर उन्होंने महाभारत युद्ध के दौरान समझाया था।कर्म ही सारे असंतुलन पैदा करता है और फिर जब यह असंतुलन विशाल रूप लेने लगता है तब प्रकृति इसे अपने तरीके से संतुलित करने लगती है।इस संतुलन-असंतुलन का जायजा लेता रहता है,'समय या काल', जो ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च न्यायधीश है तथा हर कर्म को बड़ी गहनता से देखता है।हमें लगता है कि हम सही रास्ते पर हैं तो हमें कष्ट क्यों?परंतु हम भूल जाते हैं कि सृष्टि में हर सजीव-निर्जीव रचना एक दूसरे से बंधी हैं और एक दूसरे को प्रभावित करती हैं और एक दूसरे से प्रभावित होती रहती हैं। इसीलिए अगर कोई आपके साथ बुरा करे तो समय की अदालत से कर्मों का हिसाब-किताब करके उसकी सजा तय की जाती है और जरूर दी जाती है।जब तक नकारात्मक कर्मों की संख्या कम होती है, हमें सब अच्छा दिखता है लेकिन, ज्यों -ज्यों नकारात्मक कर्म बढ़ने लगते हैं,चाहे वे किसी के द्वारा भी किये गये हों,,उसके दुष्प्रभाव सबके ऊपर दिखने लगता है।इसे ऐसे समझें कि शुद्ध जल में यदि बालू का एक कण मिल जाये तो पानी गंदा नहीं दिखेगा,शायद पिया भी जा सके लेकिन, बालू के कण यदि बढ़ते जायें तो ग्लास का पानी गंदा होता ही जायेगा और फिर पानी की सफाई जरूरी हो जायेगी,तभी पानी पीने लायक हो पायेगा।ऐसे में सफाई के दौरान बहुत सा पानी ग्लास से निकालना या हटाना जरूरी होगा।अब वो पानी गंगा से आया हो या नाले से..बर्बाद तो होगा।ऐसे में गंगा का पानी यदि यह सोचे कि मैं शिवजी के मस्तक पर रहता हूं और इतना पवित्र हूं,फिर मुझे क्यों फेंका गया तो उसका ऐसा सोचना सफाई के दौरान निरर्थक ही होगा क्योंकि मकसद तो है पानी को साफ करके पीने लायक बनाना..हां सफाई के वक्त ये जरूर ध्यान रखा जाता है कि गंगा का पानी कम से कम गिरे। प्रकृति भी कुछ ऐसे ही सृष्टि में सफाई अभियान चलाती है।ऐसे में 'जौ के साथ घुन' भी पिसने लग जाते हैं और तब सकारात्मक कर्मों की प्रधानता मनुष्य को विपरीत परिस्थितियों में बचाने के लिए अहम् भूमिका निभाती है और ईश्वर भी चमत्कार करने पर मजबूर दिखते हैं। इसीलिए, जरूरी है कि हम सकारात्मक रहें, दूसरों को अच्छे कर्म करने के लिए प्रेरित करते रहें और प्रकृति के संतुलन से बिल्कुल खिलवाड़ न करें।कम से कम अपनी तरफ से प्रकृति को संतुलित रखने हेतु इतना प्रयास तो कर ही सकते हैं कि पारिवारिक स्तर पर सबकी सकारात्मकता बढ़ाने का प्रयास करते रहें।। संतुलन बनाने के लिए केवल पेड़ लगाने,जल की सफाई और हवा की शुद्धता जैसे प्राकृतिक हार्डवेयर की देख-रेख ही जरूरी नहीं है बल्कि, प्रकृति के सौफ्टवेयर तत्वों जैसे, शुद्ध आचरण, सच्चे भाव,नैतिक मूल्यों का अनुसरण, ईश्वरीय शक्ति से अंतर्मन का मिलान, संवेदनशीलता,करुणा आदि मृदु तत्वों को व्यवहार में लाना और निखारना भी अत्यंत जरूरी है।एक शब्द में कहा जाये तो प्रकृति के मूल्यों के साथ जीवन जीना सीखना होगा,तब कहीं जाकर संतुलन सामान्य स्थिति में आ पायेगा और मनुष्य ईश्वरत्व के समीप जा पायेगा।तब न दीन होंगे,न दुःख होगा..सब प्रकृति से स्वयं को एकाकार महसूस करेंगे और सृष्टि सबके लिए अति खुशहाल हो जायेगी।शायद ईश्वर प्रकृति के ऐसे ही संतुलन बनाने के लिए अवतार लेकर आते हैं और इसीलिए भगवान कल्कि का अवतार शीघ्र और अवश्यंभावी है।
अर्चना अनुप्रिया



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