"रोष प्रकृति का,दोष मनोवृत्ति का"
- Archana Anupriya
- Aug 8
- 4 min read
“रोष प्रकृति का,दोष मनुवृत्ति का”
अभी उत्तराखंड के समाचार देखना शुरू ही किया था कि विज्ञापन आ गया।मन क्षुब्ध हो गया। फिर गूगल पर पढ़ना चाहा तो वहां भी पहले विज्ञापन दिखाने लगे।दो तीन छोटे-छोटे अंतराल के विज्ञापनों के बाद जब प्रकृति का रुला देने वाला आक्रोश पढ़ना आरंभ किया तो बीच-बीच में लिखित विज्ञापन आने लगे….फिर उन्हें हटा-हटाकर पढ़ने का सिलसिला चला।
उफ्फ..अजीब दौर है।हास्य की बात क्या करें,हर रुदन,हर आंसू अब प्रायोजित होने लगे हैं,लोगों के लिए व्यापार का जरिया बन गये हैं। उत्तराखंड की ऐसी त्रासदी,जिसके बारे में सोचकर ही रूह कांप जाती है,उसे भी पैसा कमाने का जरिया बना लिया है दुनिया ने।जिनके ऊपर गुजरी होगी,वे तो पता नहीं किस परिस्थिति में होंगे,कितने दुखी होंगे, होंगे भी कि नहीं होंगे,पता नहीं..हम कल्पना भी नहीं कर सकते,सोच से ही परे है ऐसा हादसा और जीवन की ऐसी बरबादी…। इंसान जागते हुए भी नींद में क्यों है?नींद में है या लालच में? क्योंकि अपराध तो लालच से ही निकलते हैं।जी हां,यह अपराध ही है हम मनुष्यों का कि जानते बूझते भी अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति के दोहन में लगे हैं।यह कोई साधारण अपराध नहीं है।इसके दुष्परिणाम डराते हैं।कितनी जिंदगियां इस भयानक हादसे का शिकार हो गयीं,सोचकर ही मन सिहर जाता है।ऐसे में भी व्यापारी मन अपने सामान के प्रचारों के जरिए मुनाफा कमाने में लगा है,सोचकर ही मनुष्यता शर्मसार होती है।इतनी संवेदनहीनता..! उन्हें हमारे कुकृत्यों पर प्रकृति का ग़ुस्सा दिखाई नहीं देता क्या?प्रकृति का रोष भी अकारण थोड़े ही है…हमने प्रकृति की उदारता का बहुत ही ग़लत फायदा उठाया है।सुंदर दृश्य देखने और अपने स्वास्थ्य को दुरुस्त करने हम पहाड़ों पर जाने तो लगे परन्तु, वहां जाकर हम प्रकृति को ही व्यापार का साधन बनाने लग गये। यहां तक कि धाार्मिक स्थलों को भी नहीं छोड़ा हमने। ईश्वर की भक्ति करते-करते हमने उन स्थानों पर ही कब्जा जमाना और उनसे फायदा उठाना शुरू कर दिया। भक्ति के नाम पर पिकनिक का माहौल बनाने लग गये।सभी को हर सुविधा चाहिए,ए.सी. चाहिए, बढ़िया भोजन चाहिए, परिवार और दोस्तों संग शामें बिताने के लिए सुरक्षित और सुंदर स्पाट चाहिए और उस पर से तुर्रा ये सेल्फी और रील..जिसके लिए पता नहीं क्या क्या कर गुजरते हैं हम..इन सभी सुविधाओं की कीमत कौन चुकाता है,कभी सोचा है हमने? मां प्रकृति ही पर तो सारा बोझ आता है। हमारे स्वार्थ के लिए वही तो जख्मी होती है।अब जब जख्म हद से गुजरने लग जायें तो वह हम पर क्रोधित तो होगी ही न!और क्यों न हो, इंसान जैसे जानवरो को सही रास्ते पर लाने के लिए मजबूरन उसे ऐसा रौद्र रूप लेना ही पड़ता होगा।कभी कभी लगता है कि शायद मानवता में ऐसी पशुता देखकर ही ईश्वर ने स्वयं को रहस्यमय परिस्थितियों में जकड़ लिया है।जब धरती पर रहने आये तो हमने उन्हें या तो बनवास दे दिया या महायुद्ध का लांछन लगाकर श्राप दे दिया। फिर वे पहाड़ों पर जाकर रहने लगे।हम उन्हें वहां भी चैन से रहने नहीं दे रहे। उनके दर्शन के लिए पहाड़ों पर जाने लगे और अपनी सुविधा में वहां प्रकृति को नुक्सान देने वाली चीजें तैयार करने लगे।प्राकृतिक कंदराओं और गुफाओं में न रहकर अपनी सुविधानुसार उनकी तरह पहाड़ काट-काटकर ए.सी.वाली गुफायें बना-बनाकर पैसे कमाने लग गये।प्राकृतिक माहौल में रहने और उनके अनुरूप स्वयं को न ढालकर हम प्रकृति को ही अपनी सुविधानुसार ढालने के प्रयास में लग गये। कृत्रिम बादल बरसाने लगे, पहाड़ों को काटकर सड़कें बनाने लगे,होटल, रेस्तरां आदि का निर्माण किया और तो और पहाड़ों के बाशिंदों पर भी ऐसा धन लुटाने लगे कि वे भी हमारे साथ व्यापार में लग गये।ऐसे में प्रकृति का स्वरूप बिगड़ता गया,पहाड़ कटते गये, नदियों-झरनों का प्राकृतिक बहाव अवरुद्ध हुआ और वे इधर-उधर से, जहां से जगह मिली वहां से बहने लगे अब चाहे रास्ते में किसी का घर आये या जीविका का साधन,दुकान आदि..अब जब प्रकृति गुस्से में है,यह त्रासदी आ रही है तो हम कह रहे हैं कि कलियुग है।अरे भाई,यह हमारे ही कुकृत्यों का परिणाम तो है। मजे की बात तो यह कि हम सबकुछ समझ भी रहे हैं, फिर भी नहीं रुक रहे तो दुष्परिणाम भी तो हमें ही भुगतने पड़ेंगे।अब भी चेत जायें तो गनीमत है..बार-बार आती आपदायें,भूकंप,सुनामी,चक्रवात,कहीं बाढ़, कहीं पानी का अभाव–प्रकृति कुछ तो कह रही है हमसे.. और हम हैं कि दौलत की खनक से कान हटा ही नहीं रहे हैं..आंखों-कानों पर पट्टी लगाये बैठे हैं।अपनी तरफ से बार बार इशारे कर रही है प्रकृति परन्तु हम ध्यान ही नहीं दे रहे हैं। प्रकृति को पता है कि इस टीवी युग में हम प्रमाण देखना चाहते हैं तो वह दिखा भी रही है लेकिन,हम हैं कि कुछ भाषण देकर, कुछ पेड़ लगाकर खुद को सोशल मीडिया पर पर्यावरण विशेषज्ञ बताकर वाहवाही और इनाम बटोरने में लगे हैं। प्रकृति की जो सेवा हमें करनी चाहिए,जो अतिक्रमण हमें बंद कर देने चाहिए,उदाहरण के लिए,जंगल काटकर पैसे बनाने के लिए बड़ी,ऊंची इमारतें बनाना,जमीनों पर सीमेंट से प्राकृतिक मिट्टी को दफन करना,मूक जानवरों का घर छीनकर अपने लिए सुविधाएं तैयार करना आदि ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिन्हें करते वक्त हम बस कागज के टुकड़े देखते हैं, प्रकृति का दर्द नहीं। हमें इस तरफ ध्यान देना ही होगा।हर बात के लिए हम सरकारों को उत्तरदायी बताकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। भूमि,गगन,वायु, अग्नि और नीर जैसे पंचतत्व हमें सरकारों से नहीं, प्रकृति से मिलते हैं,वो भी मुफ्त में। इसीलिए महज पेड़ लगाकर सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीरें लगाने से प्रकृति को प्रसन्न नहीं कर सकते वरन अपना आचरण सुधारकर इन पांचों तत्वों की रक्षा करनी होगी तब शायद हम मां प्रकृति के रोष को कम कर पायें और इन आपदाओं से बच पायें।आपदा प्रबंधन बनाने से प्रकृति का ग़ुस्सा थोड़े ही न शांत होगा।इसके लिए हमें अपनी मनोवृत्ति को सुधारने और बदलने वाली संस्थाओं का निर्माण करना होगा।दबी मानवता जगायें, प्रकृति बचायें।
अर्चना अनुप्रिया

