मन की बात/25-12-2020
- Archana Anupriya
- Dec 25, 2020
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Updated: Dec 28, 2020
कहने को तो वर्ष के अंतिम हफ्ते से गुजर रहे हैं दिन…. पर देखा जाये तो वक्त अभी भी फरवरी-मार्च के महीने में ही भटक रहा है।ये ही वे दिन हैं जब घर के दरवाजे बंद होने शुरू हुए थे और हम एक मानसिक पहेली से जूझ रहे थे कि कोरोना क्या है,कब तक ये स्थिति बनी रहेगी,सब कुछ बंद होगा तो जीवन कैसे चलेगा.. वगैरह वगैरह...
देखें ,तो महीनों गुजर गए…
सोचें, तो जिंदगी वहीं खड़ी है…
घर में बंद होकर भी जिंदगी ठीक-ठाक ही रही सामान्यतः.. बस मलाल ये रहा कि मजे का प्रतिशत कम रहा...अधिकांशतः,लोग परेशानियों से ही घिरे रहे।दिनों-हफ्तों तक चिटियों के रेले की तरह मजदूरों का दिन-रात चलने वाला जत्था आज भी आँखों के आगे से गुजरता प्रतीत होता है।बिलबिलाती भूख, चिलचिलाती धूप और प्रशासन का विरोध सहते बच्चे, बड़े,बूढ़े बस चलते चले जा रहे थे..दस…चालीस…
पचास..सौ..मीलों की दूरियाँ..इन्हीं ईश्वर-प्रदत्त दो पायों से नापते..।इक्कीसवीं सदी की ऐसी तकनीकी विकास के बाद भी इतनी दयनीय स्थिति देखकर क्या कहे कोई..?मूक है मन.. खामोश हैं लब और शर्मसार है इन्सानियत.. सोच रही हूँ क्या जितना विकास तकनीक ने किया है....उतना विकास मानवता कर पायी है क्या..??
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