याद है ब्लेड से पेंसिल छीलना...?
- Archana Anupriya
- Sep 16, 2020
- 2 min read
याद कीजिए वो समय, जब आधुनिक कटर इतनी प्रचलन में नहीं थी और हम सब अपनी पेंसिल की नोंक ब्लेड से छीलकर बनाया करते थे।
उन दिनों में पिता का वर्ग अधिकतर ब्लेड वाली रेजर से ही दाढ़ी बनाया करता था।नतीजतन, हर घर में ब्लेड का छोटा पैकेट तो होता ही था।रंगीन आकर्षक कागजों में लिपटी स्टेनलेस स्टील की चमचमाती ब्लेड बाहर से जितनी छोटी और आकर्षक लगती थी,अंदर से उतनी ही धारदार और खतरनाक होती थी।पेंसिल छीलते-छीलते कई बार ऊँगली भी कटती थी और हम डाँट भी खाते थे।परन्तु, पेंसिल छीलना एक ऐसा महत्वपूर्ण काम होता था ,जिसमें पढ़ने के लिए डाँटे जाने पर भी पंन्द्रह-बीस मिनट तो आराम से निकाले जा सकते थे। उस समय के हर विद्यार्थी ने पढ़ाई जैसी बोरिंग चीज से बचने के लिए एक न एक बार तो यह युक्ति अवश्य अपनायी होगी।उधर पढ़ने के लिए डाँट पड़ रही है, इधर "हाँ हाँ जा रहे हैं, पेंसिल छील रहे हैं" कहते हुए थोड़ी सी देर के आराम में मिले सुकून को सबने अनुभव तो किया ही होगा।ये मजा आजकल के कटर वाले जमाने के बच्चे कहाँ उठा पायेंगे..?उन दिनों कटर कुछ ही बच्चों के पास होती थी,ज्यादातर तो ब्लेड ही इस्तेमाल किया करते थे। हाँ, मगर जिसके पास कटर होती थी,उसका रौब भी चलता था क्योंकि झटके में पेंसिल छील देने का हुनर एक बार तो सब आजमाना ही चाहते थे।इसीलिए कटर रखने वाले बच्चे का भाव खाना तो बनता था।
इसके अतिरिक्त, पेंसिल की मिटानेवाली रबड़ भी खूशबूदार और तरह-तरह के आकर्षक डिजाइन वाली होती थी।स्कूल में हम सभी बच्चे एक दूसरे की रबड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण करते थे और उन्हें बारी-बारी सूँघते थे।जिस बच्चे की रबड़ ज्यादा सुगंधित और आकर्षक होती थी, वह बच्चा क्लास का विशेष आकर्षण होता था या यूँ कहें कि उसमें हीरो की छवि आ जाती थी।उस पर से यदि बच्चे की पेंसिल में ही डिजाइनर रबड़ जड़ी हो तो कहना ही क्या..? सारे बच्चे बारी-बारी उसे ऐसे देखने आते थे, जैसे आज मैडम तुसाद के म्यूजियम में हम मोम की बनी जीवंत मूर्तियाँ देखने जाते हैं।
आज आधुनिक सुविधाएँ बहुत हैं, पेंसिल भी डिजिटल हो रही है, आप मोबाइलों पर भी लिख लेते हैं..पर वो छोटी सी ब्लेड से पेंसिल छीलने का अद्भुत आनंद और कक्षा में सुकून देने वाली वो बादशाहत कहाँ से लाएँगे..?
अर्चना अनुप्रिया
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