"शिक्षक या शिक्षाकर्मी..?"
- Archana Anupriya
- Jan 18, 2021
- 7 min read
भारतीय संस्कृति गुरु-शिष्य परंपरा के लिए मिसाल मानी जाती है। 'गुरु' शब्द "गु"और"रु"- दो अक्षरों से बना है।"गु"का अर्थ है अंधकार और "रु" का अर्थ है प्रकाश... अर्थात अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला व्यक्ति ही गुरु है।
हमारी संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है--
"गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुर देवो महेश्वरा गुरुर साक्षात परम ब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः।"
या
"गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पांय बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताए"
गुरु के इस ईश्वर-स्वरूप का आधार है, उनका ज्ञान, उनकी नैतिकता और मौलिकता, शिष्यों की प्रति स्नेह और ज्ञान वितरण का निःस्वार्थ भाव। गुरु अपने शिष्यों का केवल संरक्षण और ज्ञानवर्धन ही नहीं करते वरन उनके व्यक्तित्व का समग्र विकास भी उनकी जिम्मेदारी है। यही विश्वास गुरुओं के प्रति मन में श्रद्धा और समर्पण का भाव पैदा करता है। इतिहास गवाह है कि गुरु वशिष्ठ, द्रोणाचार्य, चाणक्य और सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे गुरुओं ने कई योद्धा, कुशल प्रशासक और विचारक समाज को दिए हैं।
परंतु, धीरे धीरे यह पदवी प्रश्नों के घेरे में आने लगी है ।आज के सामाजिक और शैक्षणिक बदलाव की वजह से छात्र अब शिक्षण की बजाय अन्य क्षेत्रों में जाना चाहते हैं। विशेषकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट शिक्षकों का अभाव बहुत खलने लगा है। शिक्षण के क्षेत्र में तेजी से हो रहे बदलाव की वजह से जरूरी है कि शिक्षक भी स्वयं को विकसित करते रहें।जब शिक्षक छात्र की जिज्ञासा का उचित समाधान नहीं कर पाता तो आदर और विश्वास खोने लगता है।आज के भौतिकवादी समाज में शिक्षा साधना कम और व्यवसाय ज्यादा होने लगी है। शिक्षक अब शिक्षक की जगह शिक्षाकर्मी ज्यादा होने लगे हैं ।गुरुओं से प्राप्त होने वाले ज्ञान अब धन से खरीदी गई वस्तु की तरह हो गये हैं। शिक्षा व्यवस्था में राजनीति का प्रवेश शिक्षकों की नियुक्ति, वेतन, पदोन्नति, निष्कासन आदि प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा है और शिक्षकों को अपने दायित्वों से विमुख होकर राजनीति में प्रवेश करने के लिए उकसा रहा है। यह स्थिति किसी भी समाज के लिए अत्यंत ही घातक है।इससे बच्चों के समक्ष गलत संस्कार और गलत आदर्श उपस्थित हो रहे हैं जिससे देश का भविष्य संकट में आ सकता है।
जब शिक्षक वर्ग किसी समूह में बैठता है तो अक्सर एक विद्यालय को बेहतर विद्यालय कैसे बनाया जाए या आदर्श विद्यालय कैसे बने इन प्रश्नों पर चर्चा होती है।विद्यालय के भौतिक स्वरूप, प्रबन्ध, विकास, पर्यावरण, स्वच्छता, अनुशासन, नामांकन, ठहराव तथा विद्यालय के संचालन को लेकर ही अधिक बातें होती हैं। शिक्षक वर्ग इस बात से बचता है कि विद्यालय में शिक्षक व शिक्षार्थी के सम्बन्ध कैसे हों?शायद ये इसलिए है क्योंकि विद्यालय का भौतिक स्वरूप बहुत सुन्दर बना देना इतना मुश्किल नहीं है, जितना कि शिक्षक व शिक्षार्थी के मानवीय सम्बन्धों को सुन्दर बनाना।इन सम्बन्धों को सुन्दर बनाने में शिक्षक को स्वयं भी छात्र बनना पड़ता है। आपसी सम्बन्धों की खूबसूरती जरूरी है तभी शिक्षण प्रभावी होगा।शिक्षक को वह दूरी जो हर विद्यालय में अमूमन दिखाई देती है,पाटनी जरूरी है।तभी बच्चे शिक्षक से जुड़ाव महसूस करेंगे और उनके मन का डर दूर होगा।वे अपने विचारों को खुलकर अभिव्यक्त कर पायेंगे और सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं में बेझिझक शामिल हो पायेंगे।
विद्यार्थी जिस परिवार व परिवेश से आता है, उसके लिए नवीन परिस्थितियाँ और माहौल मन में अन्तर्द्वन्द् उत्पन्न करता है। ऐसे में बच्चे के लिए सीखना व शिक्षक के लिए सिखाना ये बहुत बड़ी चुनौती होती है पर शिक्षक वर्ग ने इस को कभी चुनौती नहीं माना। सीखना-सिखाना को मात्र एक कार्य माना है, जिसे मशीन की भाँति बस करते हुए चलते जाना है। कक्षा में जाकर पाठ्यपुस्तक, चॉक डस्टर उठाना, विषयवस्तु पर बातचीत करने का कार्य करना,पाठ पढाना, अभ्यास-प्रश्न करवाना, गृहकार्य देना, गृहकार्य जाँच करना, निश्चित समयावधि में मूल्यांकन करना एवं अन्तिम लक्ष्य परीक्षा परिणाम तक पहुँचना---इसके अलावा कभी बच्चे से कोई अपेक्षा न तो शिक्षक करता है न शिक्षार्थी को करने देता है। क्योंकि शिक्षक वर्ग का मानना है कि शिक्षक और विद्यार्थी में दूरी होना आवश्यक है वरना वह शिक्षक को गंभीरता से नहीं लेगा और सीखेगा नहीं। दूरी रहेगी तो डर रहेगा और डर रहेगा तो वो शिक्षक की बात मानेगा और सीखेगा। इसी मानसिकता ने हमें शिक्षा के वास्तविक स्वरूप तक जाने ही नहीं दिया। यह हमने कभी सोचा ही नहीं कि बालमनोविज्ञान बच्चों के सीखने के बारे में क्या कहता है।हमें उन अनुसंधानों को अवश्य पढ़ना चाहिए कि कैसे शिक्षक व बच्चों के अच्छे सम्बन्ध बच्चों के सीखने में मदद करते है।अनुशासन छात्र के जीवन को आगे ले जाता है।इसीलिए अनुशासन में विद्यार्थी को रखते हुए उनसे आत्मिक बनाकर रखना शिक्षकों को आना चाहिए ताकि विद्यार्थी जो जानना चाहे, निःसंकोच पूछ सके।मेरा मानना है कि ‘‘शिक्षक-शिक्षार्थियों से वैसा ही व्यवहार करे जैसा वह स्वयं के लिए चाहता है तो शायद ये सम्बन्ध गहरे होंगे।’’जब भी कक्षा-कक्ष में जाएँ मुस्कान साथ लेकर जाएँ। जाते ही उनसे अनौपचारिक बातचीत करें, माहौल को सीखने का बनाना हो तो पहले बच्चों से हँसकर बातचीत करें। उनसे विद्यालय आने व नहीं आने के कारणों को भी जानने का प्रयास करें। शिक्षक का व्यवहार बच्चे को विद्यालय से जोड़ने में काफी मदद करता है। कभी बच्चों के बीच बैठने का अवसर मिले तो उसे न छोड़ें।किसी दिन उनका मन पढ़ने में न हो तो पूरा कालांश सिर्फ बातचीत करना, उनके बारे में जानना,उन्हें अपने विषय में बताना आदि में निकालने में कोई हर्ज नहीं।इससे विद्यार्थी और शिक्षक एक दूसरे के करीब ही आयेंगे।एक शिक्षक को बच्चों के साथ संवाद करते रहना चाहिए। सही व गलत के चुनाव का फैसला उनका स्वयं का हो, ऐसा वातावरण तैयार होना चाहिए। शिक्षक सिर्फ विषय वस्तु को बच्चों तक पहुँचाने हेतु साधन मात्र नहीं होना चाहिए। बल्कि उनके जीवन को दिशा देने वाला साध्य होना भी चाहिए। शिक्षक का कार्य विद्यालय परिवार से जुड़ी गतिविधियों के बीच एक कड़ी का हो।शिक्षक और शिक्षार्थी का सम्बन्ध ऐसा हो,जो बच्चे को विद्यालय आने पर मजबूर कर दे। शिक्षित होना और पढ़ना इन दोनों शब्दों के अर्थ की समझ बच्चों में विकसित हो जाए, ऐसी गतिविधियाँ हमारे व्यवहार में शामिल हो जाएँ। आदर्श की बातें करना और आदर्श स्थापित करने की प्रक्रिया को एक शिक्षक को स्वयं में विकसित करना प्रथम अनिवार्यता है।
कक्षा-कक्ष में ठहाकों की गूँज भी हो, गीतों की सरगम भी हो, कहानियों व प्रेरक प्रसंगों को सुनाने व सुनने के अवसर भी हों,दोस्ताना व्यवहार भी हो,अभिव्यक्ति के अवसर भी हों,विषय वस्तु को लेकर चर्चाएँ भी हो, विद्यालय व समाज के प्रति चिन्तन भी हो, राष्ट्र भक्ति की चेतना भी हो। मानवीय गुणों को विकसित करने के अवसर हों, आदर्श की कोरी बातें न बल्कि आदर्श स्थापित भी हो। अनुशासन थोपा न जाए स्वानुशासन के लिए प्रेरणा हो। ये सब तब ही हो पाएगा जब शिक्षक शिक्षार्थी में जो दूरी है उस दूरी को पाट दिया जाए और खुलकर संवाद हो,सही-गलत की समझ के अवसर हों..झिझक न हो, खुलकर शिक्षक व शिक्षार्थी के मध्य वार्ता हो, विचारों का आदान प्रदान हो। हर बात पर टोका-टाकी न हो। किसी भी विषय पर सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पहलुओं पर बातचीत हो।
जब भौतिक स्वरूप से ज्यादा हमारा ध्यान विद्यालय की मूल अवधारणा पर होगा तब वो एक बेहतर विद्यालय होगा और ये निर्भर करता है शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों पर।शिक्षक व छात्र विद्यालय की संकल्पना की प्राथमिक आवश्यकता हैं क्योंकि अगर भवन है और अन्य भौतिक संसाधन पूर्ण हैं, तो भी छात्र व शिक्षक के बिना वह विद्यालय नहीं है। यह बात प्रत्येक शिक्षक भी जानता है और समुदाय भी। लेकिन छात्र की व्यक्तिगत रुचियों, आवश्यकताओं जिज्ञासाओं, विचारों व भावनाओं को समझने का सार्थक प्रयास शिक्षक समुदाय या बाहरी परिवेशीय समुदाय कितना कर पाया है, इसका सटीक उत्तर हम नहीं ढूँढ पाए हैं। बालमन की अपेक्षाएँ शिक्षक से व अभिभावकों से क्या व कितनी हैं इसको जानने के प्रयास में शायद अभी तक हम असफल से हैं।अभी तक थोपा हुआ ज्ञान ज्यादा व अनुभव से प्राप्त किया गया ज्ञान कम महसूस होता है।आमतौर पर,अभिभावक कभी बच्चे से यह नहीं जानना चाहता कि वह क्या चाहता है। स्कूल चयन से लेकर भाषा चयन तक की छूट बच्चे को नहीं है। अगर मैं आज के परिवेश की बात करूँ तो ढाई साल का बच्चे जो सिर्फ माँ की गोद, पिता का दुलार व भाई, बहिन व अन्य परिवाजनों का स्नेह चाहता है,उसको शिक्षा ग्रहण करने हेतु बड़े-बड़े चमक-दमक वाले नामी गिरामी विद्यालयों में भेजा जाने लगता है। नए लोग, नया परिवेश, अनजान जगह जहाँ जाकर बच्चे के मन में अगर मासूम सवाल भी उठते है तो उनका जवाब देने वाला आसपास कोई नहीं।शिक्षक सिर्फ बच्चे को सिखाने के लिए तत्पर है,उसे समझने के लिए नहीं।बच्चा क्या चाहता है, क्या सोचता है उसके बालमन में कितने सवाल हैं- इनसे किसी को सरोकार नहीं। वह बेचारा तो शिक्षक के व्यक्तित्व को देखकर, उसकी आँखों की तरफ देखकर सहम जाता है क्योंकि वहाँ मुस्कुराहट नहीं रौब है।हालांकि, अब माहौल बदलने की कोशिश हो रही है परन्तु, आत्मीयता का अभी भी अभाव है।ढाई या तीन साल के बच्चे को विद्यालय भेजा जाना अनुचित है पर आज के इस मशीनी दौर में इतना सोचने व किसी की राय जानने व मानने का समय किसके पास है? बच्चे का बचपन विद्यालयों की प्रतिस्पर्धा में कहीं गुम सा हो गया। माता-पिता भी बच्चे को मँहगे स्कूलों में दाखिला दिलाकर जैसे निश्चिंत से हो जाते हैं।अब इसके बाद जब बच्चा विद्यालय आने लगा तो उसकी पहचान व संज्ञा बदलने लगी.. अब वह विद्यार्थी है जिसका काम है विद्या अर्जन करना।
हम सभी जानते हैं कि बच्चा कैसे सीखता है तो क्यों न उसको अनुकरण के लिए हम स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करें। बच्चे को अनुशासन सिखाने से पहले स्वयं अनुशासन के उदाहरण प्रस्तुत करें। मेरा मानना तो यह है कि अनुशासन के नियमों का पालन थोपा नहीं जाना चाहिए, बल्कि, देखकर स्वयं पालन कर बच्चे स्वानुशासन के लिए प्रेरित हो। ऐसा कुछ हो-जैसे-बच्चे को विद्यालय समय पर आने के लिए कहा जाता है, पंक्तिबद्ध खड़े होने को कहा जाता है। कक्षा में प्रार्थना सभा में व अन्य गतिविधियों के समय चुप रहने को कहा जाता है विद्यालयी गणवेश पहनकर आने को कहा जाता है। बड़ों से ‘जी’ कहना, अभिवादन करना सिखाया जाता है। जूते चप्पल लाइन से खोलकर बैठना, पोषाहार खाते समय पंक्तिबद्ध बैठना बातचीत नहीं करना, स्वयं अपने बर्तन धोकर रखना, उस स्थल की सफाई करना, कक्षा-कक्ष में शिक्षक के निर्देशों का पालन करना सिखाया जाता है, पर क्या इन सभी नियमों का पालन शिक्षक करते हैं ? क्या हमने सीखने के अवसर स्वयं के उदाहरणों से दिए। अगर वास्तव में हम ऐसा करते हैं तो हम सही मायने में एक कुशल शिक्षक हैं अन्यथा हम केवल शिक्षाकर्मी हैं, जिनका काम है शिक्षा बेचकर पैसे घर लाना। मनुष्य जीवन पर्यन्त सीखता रहता है और जब सीखना बन्द कर देता है तब वह लगभग मृतप्राय है। हम बच्चों से क्यों नहीं सीख सकते..?बच्चों के साथ अधिक से अधिक संवाद एक रिश्ता कायम करता है। बच्चे से आप कभी उसके बारे में उसकी जिज्ञासाओं को जानने का प्रयास कीजिए,वह आपसे एक रिश्ता बना लेगा। उसकी भाषा, उसके परिवेश, उसके परिवार,उसके विचार, उसके अनुभवों को सम्मान देकर देखिए, फिर उसे कहना नहीं पड़ेगा कि शिक्षक का अभिवादन करो। वह दूरी खत्म होगी जो सीखने में बाधा पहुँचाती है और शिक्षक सही मायने में शिक्षक हो जाएगा,जो हमारी विरासत और संस्कृति है।इसीलिए, जरूरत है कि हम सब अपनी अंतरात्मा में झाँकें और विचार करें कि शिक्षक, शिक्षा व्यवस्था और गुरु-शिष्य के संबंधों में आ रही गिरावट को कैसे रोका जाए ताकि हमारे गुरुजन और हमारी गुरु-शिष्य परंपरा अपनी ऊँचाइयों को पुनः प्राप्त कर सके।
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अर्चना अनुप्रिया।
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